धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
बोले उचित बचन रघुनंदू।
दिनकर कुल कैरव बन चंदू।।
तात जायँ जियँ करहुँ गलानी।
ईस अधीन जीव गति जानी।।
तीनि काल तिभुअन मत मोरें।
पुन्यसिलोक तात कर तोरें।।
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई।
जाइ लोकु परलोकु नसाई।।
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई।
जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई।।
दो. – मिटहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।
कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी।
भरत भूमि रन राउरि राखी।।
तात कुतरकु करहु जनि जाएँ।
बैर पेम नहिं दुरइ दुराएँ।।
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं।
बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।।
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें।
करौं काह असमंजस जी कें।।
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी।
तनु परिहरेउ पेम पम लागी।।
तासु बचन मेटत मन सोचू।
तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू।।
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा।
अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा।।
दो. – मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सखी समाजु।।
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