धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भावुक जनों का कथन है कि ‘प्रेमचन्द्र’ में कभी पूर्णिमा नहीं होती –
प्रेम सदा बढ़िबो करै, ज्यों ससि कला सुबेस।
पै पूनी यामें नहीं, ताते कबहुँ न सेष।।
पूर्णिमा के पश्चात् ही चन्द्रमा का पतन प्रारम्भ होता है, किन्तु प्रेम में पूर्णिमा नहीं होती। इसीलिए यह अक्षय है। नित्य संवर्धनशील है :
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पेम अमिय मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।
सचमुच ही यदि इस जटिल परिस्थिति में विरह न हुआ होता, तो प्रेम के इस अक्षय सिद्धान्त का प्रतिपादन वाणी में ही नहीं जीवन में भी देखने को कहाँ प्राप्त होता? श्री भरत के मुख से व्यक्त हुई व्यथा ही प्रेम-दर्शन के गम्भीर सूत्र हैं। प्रेम-पथ पथिकों के लिए मार्ग-दर्शक है।
भरत की स्नेह-सिक्त वाणी सुनकर समस्त सभासदों के हृदय के करुण रस का स्रोत फूट पड़ा। सभी लोग व्याकुल हो गए। तब महर्षि अनेक इतिहास सुनाकर लोगों को सान्त्वना प्रदान करते हैं। लोगों के शान्त होने पर प्रभु अपना भाषण प्रारम्भ करते हैं। यह भाषण क्या है मानो भक्त द्वारा भगवान् की गाई गई गुण-गाथा हो। आज स्तुत्य ही स्तोता बनकर भरत का अभिनन्दन करता है।
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