धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
अन्धकार में ही तो चन्द्रोदय होता है और श्री भरत के द्वारा व्यथा के रूप में यह ‘कृपा-रहस्य’ जो हम निर्बलों का सबसे बड़ा सम्बल है प्रकट होता है –
हृदय हेरि हारेउँ सब ओरा।
एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा।।
गुर गोसाईँ साहिब सिय रामू।
लागत मोहि नीक परिनामू।।
“जिसने गुरु के प्रति समर्पण किया है, महर्षि वसिष्ठ के चरणों में जिसकी अचल निष्ठा है, राघवेन्द्र जिसके स्वामी हैं, उसका परिणाम श्रेयस्कर ही होगा।” यह श्री भरत का भाव सबके लिए है, वह वैधी भक्ति का मानो मूल सिद्धान्त है।
उसके पश्चात् श्री भरत ने जो कुछ कहा – प्रेम-पथ के पथिक के लिए वह अविस्मरणीय है। राग का सर्वोत्कृष्ट प्रेमी अपने हृदय को वज्र से भी कठोर मानता है। उसे स्वयं से अधिक प्रेम निषाद ही में नहीं, साँप, बिच्छू में भी प्रतीत होता है –
बहुरि निहार निषाद सनेहू।
कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनी बीछी।
तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।
दो. – तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।
जिनका प्रेम जड़ को भी चेतन बना देता है। जिनके स्नेह के एक बिन्दु को प्राप्त करने की आकांक्षा सिद्धजन किया करते हैं जिनके हृदय से एक क्षण के लिए भी प्रभु की विस्मृति नहीं होती। रात्रि में क्षण-भर के लिए निद्रा नहीं आती। प्रतिक्षण जो प्रियतम को सुखी देखने की चिन्ता में निमग्न रहता है। उस प्रेममूर्ति के हैं ये वाक्य। प्रेमी का हृदय कैसा होता है, इसे जानना हो तो पढ़ लें इस व्यथा-मय वाणी को। प्रेम प्रतिक्षण वर्धनशील है, क्योंकि प्रेमी जब अपनी ओर दृष्टि डालता है, तो स्वयं में उसे प्रेमाभाव ही दीखता है।
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