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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


स्नेह, दैन्य, करुणा, विवेक से परिपूर्ण श्री भरत की वाणी मानो मूर्तिमती भक्ति का प्रतीक है। भक्तहृदय का समुज्ज्वल चित्र है। करुण रस का अबाध स्रोत है। आत्मनिरीक्षण तो इसके प्रत्येक वाक्य में ओकप्रोत है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि यह भाषण ‘भरत-पयोधि’ से निकला हुआ वह ‘दिव्य स्नेह कल्पतरु’ है, जिससे प्रेम, भक्ति, विवेक, धर्म – सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

भाषण के प्रारम्भ में ही वे बाल्यकाल की मादक मधुर स्मृति में डूबकर उसमें तन्मय हो जाते हैं। अहा! वे दिवस जब बालारुण की रागरंजित किरणें अपने कोमल करों से स्वर्णिम प्रभा बिखेर देती थीं – तब अवध का राजभवन, उसका मणिमय प्रांगण, विस्तृत क्रीड़ा-भूमि मुखरित हो उठती थी सहचरवृन्द सहित राघवेन्द्र की लीला-माधुरी से। उधर सरोवरों में सरोज विकसित हो जाते थे बालारुण की क्रीड़ा देख। और इधर वात्सल्यमयी माताओं के नीरज नयन प्रफुल्लित हो जाते थे अपने शिशुओं की चपलता-दर्शन से। लाडले रामभद्र अब खड़े होकर चलना सीख गए हैं, तो भैया भरत भी चेष्टा करते हैं। जब लड़खड़ाते हैं, तो, सामने राघवेन्द्र हाथ पसारे सँभालने को प्रस्तुत खड़े हैं। पर आज वह कर्त्तु अकर्त्तु अन्यथाकर्त्तु समर्थ ईश्वर संभाल नहीं कर पाते हैं। और स्वयं भी भरत के साथ भूमि पर गिर जाते हैं। एक दूसरे को देखकर मुस्कराते हैं। हाथ में हाथ जोड़कर पुनः उठने की चेष्टा करते हैं –

बाल  भूषन  बसन तन  सुन्दर  रुचिर  रज भरनि।
परस पर खेलनि अजिर उठि चलनि गिर गिर परनि।।

कभी राघवेन्द्र को गिरा देख अम्बा उत्साहित करने के लिए पूप दिखाती हैं। पूर्ण काम राम उसे पाने की लालसा से उठकर खड़े हो जाते हैं। पूप की ओर बढ़ते हुए भी उनको भरत की स्मृति है। अपनी तोतली भाषा में आमन्त्रित करते हुए अनुजों को-

गिर घुटुरुवनि टेकि उठि अनुजनि तोतरि बोलत पूप दिखाए।
बालकेलि अवलोकि मातु सब मुदित मगन आनन्द न अमाए।।

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