धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
बालक्रीड़ा में भी उनका यह भ्रातृप्रेम माताओं के लिए आनन्दकारक था।
खेल में तो लड़ना स्वाभाविक ही है और हमारे राम उलझ भी जाते थे कभी-कभी सखा-परिकरों से –
झुकनि झाँकनि छाँह सो किलकनि नटनि हठि लरनि।
तोतरी बोलनि बिलोकति मोहनी मन हरनि।।
पर यदि एक क्षण के लिए भी जिनसे रुठना न हुआ वे हैं एकमात्र श्री भरत। भरत के साथ क्रीड़ा में राघव अपनी बालसुलभ विजयेच्छा को भुला देते थे। भरत से उन्हें हारने में आनन्द आता था। क्रमशः अवस्था वृद्धि के साथ तो प्रभु का यह वात्सल्य बढ़ता ही गया।
आज चित्रकूट में मर्यादा-पुरुषोत्तम के आत्म-समर्पण पर श्री भरत के नेत्रों में प्रभु की एक-एक क्रीड़ा झलक उठी। अहा! आज भी हमारे वही राम हैं। मुझे विजयी बनाकर हर्षानुभव करने वाले और तब वे भाव-विभोर हो गये। किन्तु श्री भरत की सदा से यह विशेषता रही कि वे प्रभु के इस स्नेह से कभी उद्धत न हुए। वे तो बाल्यावस्था से ही कौशल-किशोर के समक्ष पहुँचते ही संकोच स्नेह से नत हो जाते थे। बात करना तो दूर रहा नेत्र से मुखचन्द्र का दर्शन करने का भी साहस नहीं करते थे। उनकी चिर अतृप्ति आज भी यथापूर्व है।
उपर्युक्त दोहे में उन्होंने अपने उसी स्वभाव की ओर संकेत किया है। किन्तु बाल्यावस्था की मधुर स्मृति से आज की परिस्थिति का सम्बन्ध जोड़ते हैं, तो हृदय वेदना से भर जाता है। कहाँ अयोध्या का राजमहल और कहाँ यह पथरीली भूमि। उस दृश्य का स्मरण आता है, जब बाल-विभूषण में सुसज्जित राघव बीथियों में विहार करते थे –
छोटिए धनुहियाँ पनहियाँ पगनि छोटी
छोटिए कछौटी कटि छोटिए तरसकसी।
लसत झगूँली झीनी दीमिनी की छबि छीनी
सुन्दर बदन सिर पगिया जरकसी।।
वय अनुहरन बिभूषन बिचित्र अंग
जोहे जिय आवत सनेह की सरकसी।
मूरति की सूरति कही न परै तुलसी पै
जाने सोई जाके उर कसकै करकसी।। (गी.वा. 44)
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