धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
विधि न सकेउ सहि मोर दुलारा।
नीच बीचु जननी मिस पारा।।
यहउ कहत मोहिं आजु न सोभा।
अपनी समुझि साधु सुचि कोभा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली।
उस अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदब बालि सुसाली।
मुकुता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू।
मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू।
जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।
हृदय हेरि हारेउँ सब ओरा।
एकहिं भाँति भलेहिं भल मोरा।।
गुरु गोसाईं साहिब सिय रामू।
लागत मोहि नीक परिनामू।।
दो. – साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झुठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।
भूपति मरन प्रेम पनु राखी।
जननी कुमति जगतु सब साखी।।
देखि न जाहिं बिकल महतारी।
जरहिं दुसह जर पुर नर नारी।।
महीं सकल अनरथ कर मूला।
सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा।
करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिनु पानहिन्ह पयादेहिं पाएँ।
सँकरु साखि रहेउँ एहि धाएँ।।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू।
कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई।
जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी।
तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।
दो. – तेइ रघुनन्दनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।
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