धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुमहि सोहाई।।
सोइ सेवक मम प्रियतम सोई।
मम अनुशासन मानइ जोई।।
कहने के पश्चात् वे स्वयं उसमें संशोधन करते हैं। ‘मेरी आज्ञा मानने का यह अर्थ नहीं कि आप मेरी अनुचित बात भी स्वीकार करें। यदि अनौचित्य हो, तो मानना दूर रहा, आप लोग मुझे बीच ही में रोक दें।’
जौ अनीति कछु भाखौं भाई।
तौ मोहि बरजेउ भय बिसराई।।
उपरोक्त उदाहरण का तात्पर्य इतना ही है कि “भरत रुचि राखी” कहने के पश्चात् “करिअ बिचार बहोरि” शिष्ट जनोचित भाषण-प्रथा है। महर्षि ने मत और आज्ञा का पार्थक्य करने के साथ ही इसके द्वारा शिष्ट-प्रथा का भी निर्वाह किया है। साथ ही उनका अन्तिम वाक्यांश प्रेमपराजित होते हुए भी धार्मिक प्रेरणामूलक है। उनकी प्रबुद्ध चेतना राघवेन्द्र को शास्त्र-सम्मत निर्णय का आदेश देती है।
और इधर लोकचूड़ामणि रामभद्र मुग्ध और आशचर्यचकित हैं अपने लघु भ्राता की इस विजय पर। सर्वदा निर्भीक निर्णय देने वाले महर्षि आज एक मत के अनुयायी हो गए। स्वयं ही राक्षस वध चाहने वाले मुनिराज आज ‘भरत रुचि’ रखने की प्रेरणा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। धन्य हो तुम भरत और तुम्हारा स्नेह ! इस प्रकार के आनन्दमय भाव उदित हो रहे हैं प्रभु के हृदय में। अचानक स्मरण हो जाता है राघव को मुनि का अन्तिम वाक्यांश “बिचार बहोरि, करब साधु मत....”। “अच्छा! महर्षि भीत हैं भरत के अनुराग के समक्ष! वे सोचते हैं भरत प्रेमी है, कहीं मैं भी उसके प्रभाव में धर्म-विरुद्ध निर्णय से सहमत न हो जाऊँ? पर नहीं भरत धर्म-धुरन्दर भी है। उसके समान धर्मज्ञानी हम लोगों में दूसरा नहीं। उसका भाषण स्नेहपूरित होने के साथ ही धर्म-विरुद्ध न होगा। वह मेरा सच्चा सेवक है, मुझे संकुचित होना पड़े ऐसा कार्य वह कदापि नहीं करेगा।” इस प्रकार प्रभु के हृदय में भाव उदित हुए।
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