धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भगवान् राम के इस कथन से उनकी कठिनाई और भी बढ़ गई कि आपकी आज्ञा ही हम सब के लिए मान्य है। उन्हें भरत के प्रतिनिधित्व करने के लिए साथ ही धर्म-रक्षण की अत्यधिक चिन्ता है। इसलिए वे यह नहीं चाहते कि राघव मेरे प्रस्ताव को आज्ञा रूप में लें। तब उन्होंने वही कार्य किया, जैसे कोई व्यक्ति न्यायालय में वादी की ओर से साक्षी के रूप में उपस्थित किया जाय और साक्षी साक्ष्य देने के पहले यह घोषणा करे कि मैं स्वतन्त्र विचार शक्ति से नहीं पराधीनता के कारण साक्ष्य दे रहा हूँ और उसके पश्चात् बड़ी सुन्दर रीति से वादी के पक्ष का समर्थन करे। परिणाम समझना हम सबके लिए सरल है। उसके प्रथम वाक्य से ही उसकी आगे की समस्त व्याख्या और साक्ष्य व्यर्थ हो जायेगी। ठीक ऐसा ही किया हमारे महर्षि वसिष्ठ ने भी। भरत का समर्थन करने के पूर्व ही वे “भरत भगति बस भइ मति मोरी” की घोषणा करते हैं। उसके पश्चात् भगवान् भूतभावन शिव को साक्षी देकर भरत रुचि रखने की प्रार्थना करते हैं –
मोरे जान भरत रुचि राखी।
जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी।।
किन्तु इसके पश्चात् उन्होंने एक बात और कही – स्नेहाधिक्य से कही है पर आप तटस्थ दृष्टि से विचार कर सकते हैं, अतः यदि भरत रुचि शास्त्र सम्मत हो तो उसे स्वीकार कीजिए। यदि कहा जाय कि क्या स्वयं महर्षि शास्त्र सम्मत निर्णय नहीं कर सकते? तो उसका उत्तर वसिष्ठ जी प्रारम्भ में दे चुके हैं “भरत भगति बस भइ मति मोरी” कहकर।
साधारण रीति से भी इसकी संगति लगने में कोई कठिनाई नहीं है। शिष्टजन ऐसी भाषा में बात किया करते हैं – “मेरा मत तो यह है, परन्तु आप स्वयं विचार कर लीजिए, उचित हो तो मानिए।” शिष्ट शिरोमणि राघवेन्द्र भी इस भाषा में वार्तालाप करते हैं। पुरवासियों को उपदेश देने के प्रसंग में यह स्पष्ट व्यक्त है।
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