धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी विह्वलता, कातरता और दैन्य से उन्हें भ्रम हो जाता है कि भरत आर्त्त है, वे अपना ही पक्ष पुष्ट करना चाहेंगे : भरत-चरित्र कुछ ऐसा ही है, जिसे समझना अत्यधिक कठिन है। उन्हें केवल एक ही व्यक्ति जानता है और वे हैं भक्त वत्सल-सुजान-राम। वे प्रारम्भ में ही निर्णय कर चुके हैं कि “भरत कहे महँ साधु सयाने” और आज भी उनका निर्णय यथापूर्व है। इसी बल पर वे कह देते हैं कि “पुनि जेहि कहँ जस देव रजाई, सो सब भाँति घटिहि सेवकाई।” उन्हें अपने भरत पर अगाध विश्वास है – गर्व है। हमारा भरत आर्त्त नहीं, सच्चा अनुरागी है! उसकी कातरता के पीछे अगाध विवेक शक्ति छिपी हुई है।
महर्षि चकित रह गए भरत के प्रति प्रभु का इतना अगाध विश्वास और अपनत्व देखकर। साथ ही वे जिस भार से उन्मुक्त होना चाहते थे, वह भी सम्भव न हुआ। अतः फिर वे स्वयं में निर्णय की योग्यता का अभाव बताते हैं। निर्णय करने के लिए जिस निष्पक्ष विचार-शक्ति की अपेक्षा है, आज वह मुझमें नहीं है। भरत स्नेह ने विचार का अपहरण कर लिया है।
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा।
भरत सनेहँ बिचारु न राखा।।
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी।
भरत भगति बस भए मति मोरी।।
वास्तव में महर्षि जिस कठिन द्वन्द्वात्मक परिस्थिति में पड़ गए थे, उससे छूटने के लिए उन्होंने एक सुन्दर उपाय निकालने की चेष्टा की। श्री भरत ने उनको ही समग्र पुरवासियों का व अपना प्रतिनिधि बना दिया था। पर वह महर्षि का स्वस्वीकृत प्रतिनिधित्व नहीं है। भरत की पराधीनता से ही वे इसके लिए प्रस्तुत हुए।
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