धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
इस प्रकार महर्षि बड़ी बुद्धिमानी से अपने को लांछन मुक्त रखते हुए भी संकेत कर देते हैं। स्वयं कोई निर्णय न करके प्रभु पर यह भार छोड़, वे स्वतन्त्र होने की चेष्टा करते हैं। किन्तु एक तो राघवेन्द्र की गुरु भक्ति अद्वितीय है, गुरुजनों के समक्ष कोई निर्णय देना उन्हें अच्छा नहीं लगता। वे संकेत नहीं – आज्ञा चाहते हैं। दूसरा कारण है लीलाबिहारी की कौतुकप्रियता – सर्वज्ञता की ओर संकेत करने पर भी वे माधुर्य में ही रहना चाहते हैं। उन्हें आश्चर्य होता है कि सदा स्पष्ट निर्णय देने वाले महर्षि आज मुझपर यह भार क्यों छोड़ रहे हैं? वह कौन-सी शक्ति है, जिसने मुनिराज को भी संकोच में डाल दिया है? स्पष्ट अर्थों में कहें, तो इसका भाव यह कि अपने लाडले भरत की गुण-गाथा सुनना चाहते हैं। किन्तु व्यक्त रूप में उसका स्वरूप गुरुभक्ति ही है।
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ।
नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ।।
सब कर हित रुख राउरि राखें।
आयसु किएँ मुदित फुर भाखें।।
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई।
माथे मानि करौं सिख सोई।।
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईं।
सो सब भाँति घटिहि सेवकाई।।
भगवान् राघवेन्द्र के उपरोक्त वचन सर्वथा निश्चयात्मक हैं। अंतिम वाक्य तो अतीव महत्त्वपूर्ण है। उसमें प्रभु न केवल अपना अपितु श्री भरत आदि सबका प्रतिनिधित्व कर देते हैं। “आपकी आज्ञा का पालन प्रत्येक व्यक्ति करेगा” – यह कहकर राघव श्री भरत पर अपना अगाध विश्वास प्रकट करते हैं। इससे महर्षि की इस धारणा का खण्डन अपने आप हो जाता है कि “आर्त्त विचारशील नहीं होते, जुआरी को अपना ही दाँव सूझता है।” महर्षि श्री भरत को पहचानने में बार-बार भूल कर जाते हैं।
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