धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भगवान् राम ने गुरुदेव को साष्टांग प्रणाम किया। बैठने के लिए कुशासन बिछाया। उस पर आसीन हो महर्षि ने सबको बैठने की आज्ञा प्रदान की। इसके पश्चात् सभा का कार्यक्रम प्रारम्भ होता है। यह तो स्पष्ट है कि श्री वसिष्ठ के हृदय में विचित्र द्वन्द्व है। एक ओर उन्हें भावुकता के प्रवाह में बहने से रोकना है, बन जाने देने के पक्ष में निर्णय देना है, तो दूसरी ओर हृदय भरत का अनुगामी हो चुका है, बुद्धि भी भरत-प्रेम के समक्ष पराजित है। ऐसी जटिल परिस्थिति में उन्हें दोनों का निर्वाह करना है। अतः वे अपनी सारी कठिनाई प्रभु से व्यक्त कर देते हैं।
सुनहु राम सरबज्ञ सुजाना।
धरम नीति गुन ज्ञान निधाना।।
दो. – सब के उर अन्तर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।
पुरजन जननी भरत हिय होइ सो कहिअ उपाउ।।
आरत करहिं बिचारि न काऊ।
सूझ जुआरिहि आपन दाऊ।।
महर्षि ने अपने संक्षिप्त भाषण में सांकेतिक रीति से सारी स्थिति व्यक्त कर दी है। भगवान् की सर्वज्ञता का वर्णन करना एक ही अर्थ रखता है कि आप मेरी कठिनाई और भरत से हुआ वार्तालाप अच्छी तरह समझ सकते हैं? सबके अन्तर्यामी होने से लोगों का भाव भी आपसे छिपा नहीं है। अतः पुरजनों, माताओं और भरत का हित जिसमें हो, वह उपाय कीजिए। सम्भव है प्रभु पूछें कि जिनके हित की बात आप कहते हैं, वे भी तो बुद्धिमान हैं। वे स्वयं निर्णय क्यों नहीं करते? तो इस प्रश्न का उत्तर महर्षि पहले ही दे देते हैं कि “आर्त्त विचारशील नहीं होते, जुआरी को सदा अपना ही दाँव सूझता है?”
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