धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
महर्षि तत्कालीन असमर्थता कल्पनातीत है। ब्रह्मा के मानस पुत्र, स्मृति निर्माता, महान् विवेकी आज पराजित हो गये अपने शिष्य की महानता के सामने। महाकवि ने इसे बड़ी सुन्दर रीति से व्यक्त किया है –
भरत महा महिमा जलरासी।
मुनि मति ठाढ़ि तीर अबलासी।।
गा चह पार जतनु हियँ हेरा।
पावनि नाव न बोहितु बेरा।।
ओरु करिहि को भरत बड़ाई।
सरसी सीपि कि सिंधु समाई।।
भरत की ‘महान् महिमा’ विशाल पयोनिधि है और महर्षि की अबला मति पार करने की इच्छा से किनारे खड़ी है। उसने अनेक उपाय सोचे किन्तु नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी प्राप्त नहीं हो रहा है। महर्षि के तीन प्रयत्न ही मानो नाव, बोहित और बेरा पाने का प्रयत्न करना है।
(1) अयोध्या में भरत को राज्याभिषिक्त करने की चेष्टा – मानो भरत पयोनिधि को पार करने के लिए ‘नाव’ प्राप्त करने की चेष्टा के समान है।
(2) चित्रकूट में राघवेन्द्र की महिमा की वर्णन करके, उसके बन-गमन में ही मंगलमयता दिखाकर मानो ‘जहाज’ प्राप्त करने की चेष्टा है।
(3) “तुम कानन गवनहुँ दोउ भाई” का प्रस्ताव अन्तिम और बृहत् बेड़ा प्राप्त करने का प्रयत्न है।
किन्तु तीनों बार निराशा ही हाथ लगी। सत्य तो यह है कि भरत पयोधि को पार करने की चेष्टा व्यर्थ है। उस प्रेम-पयोधि का दर्शन-मज्जन ही कल्याणकारी है। जहाँ महर्षि वसिष्ठ की यह स्थिति हो वहाँ अन्धों की क्या कथा –
जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाही।
कहहु तूल केहि लेखे माँही।।
किन्तु महर्षि अपनी पराजय पर प्रसन्न थे, क्योंकि “अन्यत्र विजयमिच्छेत् शिष्या दिच्छेत् पराजयम्” सूक्ति लोक-प्रसिद्ध है। तब वे प्रेमपराजित हो भरत जी के साथ राघवेन्द्र के यहाँ पधारे –
भरत मुनिहि मन भीतर भाए।
सहित समाज राम पहिं आए।।
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