धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
गोस्वामी जी ने उन्हें अपने शब्दों में सुलभ कर दिया है –
गुर अनुरागु भरत पर देखी।
राम हृदयँ आनन्द बिसेखी।।
भरतहि धरम धुरंधर जानी।
निज सेवक तन मानस बानी।।
श्री भरत का उपर्युक्त परिचय ही उनका वास्तविक परिचय है। भरत चरित्र में प्रेम और धर्म एक दूसरे के विरोधी नहीं – पूरक रूप में आते हैं। किन्तु कठिनाई यही है कि जब तक प्रभु वन-गमन नहीं हुआ था, लोगों ने उन्हें धार्मिक रूप में देखा, पूर्णानुरागी के रूप में नहीं। वन-गमन के पश्चात् लोगों को अवध राज्य-सभा में उनमें पूर्णानुराग दीखने लगा। पर दुर्भाग्यवश तब उनका धर्म-धुरन्दर रूप छिप गया। अन्य लोगों की तो बात ही क्या, महर्षि वसिष्ठ भी भरत-हृदय की थाह नहीं ले पाते। वे भी ‘भरत-स्नेह’ से पूर्ण सशंक हैं। अन्ततोगत्वा भरत राघवेन्द्र से लौट चलने का आग्रह करेंगे – ऐसा उनका विश्वास था। उनके इस विश्वास में पुरवासी, माताएँ, देवगण सभी सहमत थे। ऐसी परिस्थिति में भरत-हृदय का विराट प्रेम व धर्मसमन्वय जानने वाले एकमात्र सुजान राघवेन्द्र ही हैं। उन्हें न कोई सन्देह है न भय। उन्हें पूर्ण विश्वास है कि भरत का निर्णय ही साधुमत, लोकमत, रीजनीति और शास्त्रसम्मत होगा और निर्भीकता से उन्होंने प्रेमभरे शब्दों में भाषण प्रारम्भ किया –
बोले गुर आयस अनुकूला।
वचन मंजु मृदु मंगलमूला।।
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई।
भयउ न भवनु भरत सम भाई।।
जे गुर पद अम्बुज अनुरागी।
ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी।।
राउर जापर अस अनुरागू।
को कहि सकइ भरत कर भागू।।
लखि लघ बन्धु बुद्धि सकुचाई।
करत बदन पर भरत बड़ाई।।
भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई।
अस कहि राम रहे अरगाई।।
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