धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
मुझे तो लगता है कि चित्रकूट के मिलन को मिलन न कहकर एकत्व कहना अधिक उपयुक्त होगा। यहाँ समग्र भेदों और दूरी का विस्मरण कर दोनों एकमेव हो जाते हैं। अयोध्या का मिलन मिलन है। अत्यधिक सामीप्य होने पर भी वहाँ भेद हैं और उसका कारण स्पष्ट है। यहाँ का सारा वातावरण रसमय है – निषादराज, शत्रुघ्न, लक्ष्मण और श्री किशोरी जी की उपस्थिति में रसिकशेखर को एकान्त प्रतीत हो रहा है। उनसे संकोच का कोई कारण नहीं। मिलन एकान्त में ही हो पाता है। पर अयोध्या का वातावरण एकान्त न था। वहाँ गुरुजन और समस्त पुरवासी मिलने के लिये आये हुए थे। वहाँ राघवेन्द्र ने प्रेम की अपेक्षा धर्म की मर्यादा का पालन उचित समझा। इसलिए श्री भरत से पहले वे गुरुजनों से मिलते हैं। वहाँ कविकुल चूड़ामणि प्रभु के नाम के साथ विशेषण भी बड़ा सुन्दर जोड़ देते हैं।
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा।
धरम धुरन्धर रघुकुल नाथा।।
‘धर्म-धुरन्दर’ में ही सारा रहस्य निहित है। वातावरण की इस पृष्ठभूमि पर भरत से प्रभु का मिलन होता है। गुरुजनों और पुरवासियों की उपस्थिति में संकोच होना स्वाभाविक था।
रसमय वातावरण और एकान्त में ही पूर्ण मिलन हो सकता है। मुझे स्मरण आता है जब प्रभासक्षेत्र में द्वारिका से पधारे हुए आनन्दकन्द भगवान् श्रीकृष्णचन्द का शुभागमन हुआ और श्री ब्रज धाम से ब्रज-जन-सीमन्तिनी नित्य-निकिञ्जेश्वरी प्राणेश्वरी श्री वृषभानु नन्दिनी श्री राधारानी पधारीं। दोनों का मिलन हुआ। लौटने पर किसी अनुरागमयी गोपी ने पूछ ही तो दी प्रिय-मिलन की बात – उत्तर मिला – “अरी सखी! वही प्राणाधिक रसिकवर नन्द-नन्दन थे और मैं भी वही राधा और हम दोनों सोल्लास मिले भी, किन्तु हा सखि! मेरा मन रसमय-कालिन्दी पुलिन की ओर जाता है, कभी उस निविड़ अरण्य के कदम्ब तले तो कभी किसी निभृत निकुञ्ज में प्राणप्यारे के साथ मिलन के अनेक-अनेक मादक क्षण हमारी स्मृतियों में झूल रहे थे। वह रस यहाँ कहाँ?” संभवतः इसीलिए किसी रसिक ने कह दिया-
रे मन वृन्दा बिपिन निहारु।
बिपिन राज सीमा के बाहर हरि हूँ को न निहारु।।
|