धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
चित्रकूट और अवध के वातावरण के अन्तर से ही दोनों के मिलन और तन्मयता में किञ्चित अन्तर पड़ गया।
अहा! वह वातावरण – जहाँ एक ओर कल-कलनिनादिनी पयस्विनी मन्थर गति से बह रही है। पाकरि-जम्बु-रसाल-तमाल बट की पंचवटी और लताजाल के आच्छादित प्राकृतिक मण्डप सुशोभित है। कुन्द पारिजात, पाटल, तुलसी की मधुर सुगंध से सुरभित वायु बह रही है। चारों दिशाओं में चार प्रेममय रसिकाचार्य रसवर्षण कर रहे हैं। एक ओर हैं रसिकशेखेन्द्र-मोहिनी श्री जनकनन्दिनी सीता, दूसरी ओर रामानुराग सर्वस्व श्री लक्ष्मण, तीसरी दिशा में सहज सनेही राम-सखा निषाद और चौथी ओर भरत पाद-पद्म-मधुकर श्री शत्रुघ्न। इस प्रकार चार रसिकों से परिवेष्टित मानो सर्वथा अप्राकृत कुञ्ज हो गया हो। उसमें प्राणाभिराम राम और श्री भरत का मिलन होता है। प्रेमी प्रियतम का भेद मिट चुका है, सर्वथा एकाकार हो चुके हैं। पहचानना ही असम्भव है कौन राम हैं? कौन भरत?
कान्ह भए प्राणमय प्राण भए कान्हमय।
समुझि न परत कि कान्ह हैं कि प्राण हैं।।
किन्तु अभागे देवता इस दृश्य को देखकर रस-विभोर न हो सके। स्वार्थ ने उनके हृदय में रस को प्रविष्ट ही न होने दिया। उसका हृदय काँप रहा है “ओह! जिससे मिलकर प्रभु इतने विह्वल हो गये हैं, उसकी बात कैसे टालेंगे? तब क्या होगा देव-कार्य का? हम लोग इसी प्रकार रावण की सेना करते रहेंगे।” किन्तु देवगुरु सद्गुरु थे। उन्होंने देवताओं को सान्त्वना दी, “धैर्य धारण करो प्रभु का विधान मंगलमय है। अपने कर्त्तव्य का पालन करो।” गुरु पर विश्वासाधिक्य से वे चैतन्य हो गए और पुष्प-वृष्टि करके प्रेम की प्रशंसा करने लगे।
समुझाए सुर गुरु जड़ जागे। बरसि प्रसून प्रशंसन लागे।।
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