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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


भगवान् शंकर से याचना करके सुमति प्राप्त की थी हमारे कविकुल चूड़ामणि ने –

सम्भु प्रसाद सुमति हिय हुलसी।
राम चरित मानस कवि तुलसी।।

पर आज तो भूतभावन भगवान् शिव की मति भी असमर्थ हो रही है इस प्रेम-पयोधि के निकट जाने में। पार करना तो दूर रहा। तब ‘सुमति हिय हुलसी’ की स्वीकारोक्ति करने वाले गोस्वामी जी अपने को कुमति स्वीकार करते हैं –

सो मैं कुमति कहौं केहि भाँती।
बाज सुराग  कि गाँडर  ताँती।।

इस प्रकार कवि ने तीन प्रकार से इस सनेह कथा के वर्णन में अपनी असमर्थता प्रकट की। छाया को देखकर भाव चित्रित करना चाहता है, पर छाया का अभाव है। शब्द सुनकर नर्तन करना चाहता है, पर निस्तब्धता है। सोचता है, अच्छा न सही, स्वतन्त्र कृति ब्रह्मा-विष्णु-शिव-निर्मित राग (अभिप्राय यह है कि मेरी समझ में न आवे पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि जैसे कहें वैसा ही लिख दूँ) ही बजा दूँ। किन्तु जब श्रेष्ठ ताँत से बने सुस्वर वाद्य वाले भी इन मौन संगीत को नहीं गा पा रहे हैं, तो भला मैं गाँडर ताँत को लेकर बसुरा बजाने की चेष्टा करूँ तो यह कैसे शोभा देगा? अतः मौन ही श्रेयस्कर है। मानस भर में महाकवि की यह असमर्थता अपने प्रकार की अनूठी है। अन्य सभी स्थलों पर भाषाशक्ति की त्रुटि ही कवि के मौन का कारण है। वह देवता, समझता है पर उपमाओं का अभाव उसे असमर्थ कर देता है।

सीय बरनि तेई उपमा देई।
कुकवि कहाय अजस को लेई।।

अन्य कई स्थलों पर सुखानुभव करने वाले के द्वारा वर्णन में असमर्थता दिखाकर कवि अपनी असमर्थता का ज्ञापन करता है। जैसे–

रामहिं चितव  भाव जेहि  सीया।
सो सनेह  सुख नहिं  कथनीया।।
उर अऩुभवित न कह सक सोऊ।
कौन  प्रकार  कहै  कवि  कोऊ।।

पर यह मिलन तो अन्य सबकी अपेक्षा विलक्षण है, क्योंकि भाषा-शक्ति का प्रश्न ही उठाना व्यर्थ है, जब तक कोई स्वरूप न ज्ञात हो। और न तो “श्री भरत और राम अनुभव कर रहे हैं पर वे बता नहीं सकते” – यही कहा जा सकता है। क्योंकि किसी पदार्थ का अनुभव मन द्वारा ही होता है, पर यहाँ तो दोनों भाई मन की कौन कहे बद्धि, चित्त, अहंकार को भी विस्मृत कर चुके हैं। यही कारण है कि यहाँ अश्रुपात, रोमांच कण्ठरुद्धता आदि किसी भी बाह्य लक्षण का उल्लेख महाकवि नहीं करते। मनःस्थिति बिना यह सब होने का नहीं?

अन्यों की बात ही क्या श्री भरत जी व प्रभु का लंका से लौटाने पर जो मिलन हुआ उसमें और इसमे कितना अन्तर है। दोनों का मिलान करिये –
चित्रकूट
1. अश्रु रोमांच का अभाव
2. मन बुधि चित अहमिति बिसराई
3. कोउ कछु कहइ न कोउ कछु पूँछा
अयोध्या
1. श्यामल गात रोम भए ठाढ़े
   नव राजीव नयन जल बाढ़े
2. सुन शिवा सो सुख बचन मनते
   भिन्न जान जो पावई
3. बूझत कृपानिधि कुशल भरतहिं

इस अन्तर का क्या कारण है?

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