धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
इसका संक्षेप में सूत्र यही है कि हमें जीवन में कहीं न कहीं एक विभाजक रेखा बनानी पड़ेगी। आप देखेंगे कि काम और क्रोध के साथ 'अपार' शब्द न जोड़कर लोभ के साथ ही जोड़ा गया -
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
काम 'अपार' हो भी नहीं सकता। काम की सीमा है। व्यक्ति वृद्ध हो जायगा, उसके सामर्थ्य में कमी आ जायगी। क्रोध में भी आदमी अधिक देर तक नहीं रह सकता। ज्यादा देर तक क्रोध करने में उसे स्वयं ही घबराहट होने लगेगी, अत: वह शान्त होने की चेष्टा करेगा। इस प्रकार क्रोध भी अपार नहीं हो सकता। पर निरंतर बढ़ते जाने वाला लोभ तो निस्संदेह 'अपार' है।
हम दिन में लोभ की पूर्ति के लिये परिश्रम तो करते हैं पर रात में 'भी जागते हैं, नींद नहीं आती। क्यों नहीं आती? क्योंकि हम आगे की योजना बनाते रहते हैं। इसलिये इस अपार को जब तक हम पार की सीमा में न ले आयें तब तक हम अपने जीवन में शान्ति की अनुभूति नहीं कर सकते।
विचार करने पर यह प्रश्न सामने आता है कि मनुष्य जो कुछ करता है उससे वह क्या प्राप्त करना चाहता है? उसका अपने जीवन का लक्ष्य क्या है? तो, वह जो चाहता है उसमें भी विरोधाभास है। मनुष्य सुख पाना चाहता है। यह बात आपको उसके रात और दिन के क्रिया-कलापों पर दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जायगी। दिन में व्यक्ति वह सब करता है जिसमें उसे यह दिखायी देता है कि 'इनके करने से उसे सुख मिलेगा।' पर रात में वह नींद लेना चाहता है। इसके लिये उसे सारा व्यापार बंद करके सोने के लिये जाना पड़ेगा। कई लोगों को बड़ी देर में नींद आती है और कुछ लोग पलँग पर पड़ते ही बड़ी सरलता से सो जाते हैं। तो कहा जा सकता है कि जो बोझ को अपने ऊपर लादे हुए पलँग पर लेटते हैं उनको नींद जल्दी नहीं आती, पर जो हल्के होकर सोते हैं वे सरलता से सो लेते हैं। इस तरह के व्यक्तियों में कई ऐसे हुए हैं जो आध्यात्मिक नहीं थे। इनमें एक नाम चर्चिल का भी आता है। विश्वयुद्ध के समय उन्हें इंग्लैण्ड का प्रधान मंत्री नियुक्त किया गया था।
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