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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814
आईएसबीएन :9781613016206

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


पर इतनी सुंदरी नारियों के होते हुए भी जो सीताजी को चुराये इसका क्या अर्थ हुआ? शूपर्णखा भी रावण की इस दुर्बलता को जानती थी। इसलिये उसने कह दिया कि उस वनवासी राजकुमार के साथ जैसी सुंदरी नारी है। वैसा सौन्दर्य तो तुम्हारे महल में भी नहीं है। सुनकर रावण सीताजी को पाने का निश्चय करता है। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से दिखायी देता है कि सभी दिशाओं में उन्नति करने के बाद भी रावण के जीवन में लोभ की वृत्ति निरंतर बढ़ती ही जा रही है। इसके साथ-साथ उसके जीवन में काम और क्रोध का भी अतिरेक दिखायी पड़ता है और यही अतिरेक अंत में लंका के विनाश का कारण बनता है।

गोस्वामीजी ने अयोध्या की उन्नति का भी वर्णन किया पर उसके वर्णन में उन्होंने सर्वथा भिन्न शब्दों का चुनाव किया। धनुष-भंग के पश्चात् जनकपुर से जब दूत पत्र लेकर अयोध्या आये तो महाराज दशरथ ने वह पत्र गुरु वशिष्ठ को दिया तथा दूतों के मुँह से सुनी सारी कथा गुरुदेव को भी सुनायी। वशिष्ठजी इससे बड़े आनन्दित हुए और उस समय उन्होंने जो वाक्य कहे, वे लंका और अयोध्या की उन्नति के पार्थक्य को प्रकट करते हैं। वे कहते हैं-
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं।
जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपति बिनहि बोलाएँ।
धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।। 1/293/2,3

राजन्! तुमने अपने पुत्रों को विवाह के लिये भेजा नहीं, पर देखो न! तुम्हें कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ा और कितना सुखद समाचार मिल गया! समुद्र नदियों को निमन्त्रण नहीं देता, फिर भी वे समुद्र में बढ़ी चली जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारे जीवन में भी धन्यता की स्थिति है।''

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