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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814
आईएसबीएन :9781613016206

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


जैसा कि पहले भी कहा गया है कि दान की कई कक्षाएँ हैं। वस्तु का दान, दान की पहली सीढ़ी है। दान में दी गयी वस्तु से अपनी ममता को हटा लेना, यह दान की और ऊँची स्थिति है और इस क्रम में जब दान का अहं भी छूट जाय तो यह सबसे ऊँची स्थिति कही जाती है। इसलिए बलि की यज्ञशाला में भगवान् ने सब कुछ दान में लेकर भी बलि को बाँध दिया, और जब बलि ने कहा - महाराज! अब तो कोई वस्तु नहीं बची है, केवल मैं ही बचा हूँ अत: आप मुझे ही नाप लीजिये! तो भगवान् ने बलि की बात सुनकर तुरंत कहा- बस! अब तुम्हारा दान पूरा हो गया। भगवान् का तात्पर्य है कि सब कुछ देने पर भी यदि मैं का दान नहीं दिया गया तो वह अधूरा रह जाता है। वर्णन आता है कि दान की पूर्णता के बाद भगवान् स्वयं ही बलि के ऋणी हो गये।

भगवान् ने बलि से कहा - बलि! मैं स्वर्गलोक तो इन्द्र को दे रहा हूँ और तुम्हें पाताल में भेज रहा हूँ। इस समय अब तुम भी मुझसे कुछ माँग लो। बलि ने उस समय बड़ी मीठी बात कही। उसने कहा- प्रभु! आप ऐसी कृपा कीजिये कि मुझे निरंतर आपका दर्शन होता रहे।

यह तो बड़ी अच्छी बात है कि हम कहीं भी रहें, चाहे उच्च स्थिति में रहें या नीची स्थिति में रहें, पर ईश्वर के दर्शन हर स्थिति में हमें होते रहें, ईश्वर हमारे साथ रहें। बलि की माँग को भगवान् ने इस रूप में पूरा किया कि वे पाताल लोक में किसी मंदिर-विशेष में न रहकर बलि के द्वारपाल बन गये। बलि को अहंकार के दान का कैसा दुर्लभ फल मिला! क्योंकि जब ईश्वर स्वयं ही द्वारपाल बन जाय, तब तो किसी भी दुर्गुण में यह साहस नहीं हो सकता कि वह व्यक्ति के जीवन में भीतर बैठ सके।

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