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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814
आईएसबीएन :9781613016206

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


देखो भाई! जिसकी धन की इच्छा होती है उसकी बात तो नहीं कहता, पर धन से भी बड़ी इच्छा होती है यश और कीर्ति पाने की इच्छा। व्यक्ति यश पाने के लिये धन देने में भी संकोच का अनुभव नहीं करता। मेरे बारे में भी ऐसा प्रचार हो गया है कि जब कोई भी राम के पास जाता है तो राम उसे जरूर देते हैं। अब ऐसी स्थिति में यदि तुम लंका का राज्य स्वीकार नहीं करोगे, तब तो मेरा यश ही नष्ट हो जायगा।

मित्र! मैं जानता हूँ कि तुम्हें आवश्यकता नहीं है, पर मेरे यश की रक्षा के लिये तुम कृपापूर्वक इसे स्वीकार कर लो! गोस्वामीजी लिखते हैं कि-
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं।
मोर दरस अमोघ जग माहीं।।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन वृष्टि नभ भई अपारा।। 5/48/9,10

इस दान पर मुग्ध होकर देवतागण भगवान् राम पर फूलों की वर्षा करने लगे।

संसार में बहुधा यह देखा जाता है कि थोड़ा-सा दान देने पर ही व्यक्ति का सिर उठ जाता है, पर यहाँ तो स्थिति सर्वथा उल्टी दिखायी देती है। जिस समय प्रभु ने विभीषणजी को तिलक किया उस समय गोस्वामीजी यह लिखना नहीं भूलते कि-
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।। 5/49-ख

प्रभु को बड़ा संकोच हो रहा है- अरे! मैंने इन्हें कुछ भी तो नहीं दिया! विभीषणजी रावण के छोटे भाई ही तो हैं, इसलिए लंका का राज्य इनका है ही! मुझे तो व्यर्थ में ही दाता का श्रेय रहा है। मैं दाता कहाँ से हो गया? इस प्रकार यह अहं से मुक्त दान श्रेष्ठतम दान का एक उदाहरण है।

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