धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
विभीषणजी जिस समय भगवान् राम के पास आये, उस काल में प्रभु वनवासी जीवन व्यतीत कर रहे थे। वे कंद-मूल फल का भोजन करते थे और वृक्ष के नीचे कुश के आसन पर विश्राम-शयन करते थे। पर उस समय ऐसी स्थिति में रहते हुए भी, जब विभीषण जी आये तो प्रभु ने उन्हें संबोधित करते हुए कहा -
कहु लंकेस सहित परिवास।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।। 5/45/4
हे लंका के राजा! आप सपरिवार कुशल से तो हैं न! प्रभु का लंकेश संबोधन सुनकर विभीषणजी सकुचा गये और सोचने लगे कि मेरे मन में राज्य की जो वासना थी, प्रभु से वह छिपी नहीं रह सकी, उन्होंने तो पहचान लिया! इसीलिए तो प्रभु ने उसकी पूर्ति के लिये मुझे लंकेश बना दिया। विभीषणजी कहने लगे - महाराज! मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पहले मेरे मन में यह इच्छा तो थी पर अब बिलकुल नहीं है -
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।। 5/48/6
प्रभु ने कहा - मित्र! क्या तुम यह समझते हो कि मैं इसलिए दान दे रहा हूँ कि लंका के राज्य की तुम्हें कोई इच्छा थी? नहीं, नहीं ऐसी बात नहीं है। आप प्रभु की दानशीलता देखिये! दान देनेवाला व्यक्ति यही समझता है कि मैं दान देनेवाला हूँ और मेरे सामने जो माँगनेवाला खड़ा है, उसकी इच्छापूर्ति करके बहुत बड़ा कार्य कर रहा हूँ। पर भगवान् राम ने कहा - मित्र मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम्हारे भीतर कोई इच्छा नहीं है, क्योंकि यदि तुम्हें राज्य की इच्छा होती तो यहाँ क्यों आते? तुम वहाँ पर राज्य ही तो कर रहे थे।
तो फिर महाराज! आप क्यों दे रहे हैं? विभीषणजी ने आश्चर्य से पूछा! भगवान् राम का शील देखिये! वे कहते हैं- मित्र! तुम भले ही इच्छाओं से ऊपर उठ गये हो, पर मैं तो नहीं उठा हूँ।
महाराज! इच्छावाला भी देता है क्या?
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