धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
उन्होंने याचकों को बुलाया और बड़ी प्रसन्नता से कह दिया कि जिसे जो चाहिये वह ले ले। और फिर उसके बाद -
उबरा सो जनवासेहिं आवा।। 1/325/7
जो कुछ बच गया उसे ही उन्होंने स्वीकार किया। अब, रामायण में दहेज की बात है तो उसे उसी रूप में पूरी तरह स्वीकार करें, तब तो ठीक भी है। इसलिए गोस्वामीजी ने एक मीठा बिनोद भी किया। वे कहते हैं कि जब जनकजी ने देखा कि दशरथ जी ने तो सब कुछ बाँट दिया इसलिए दूसरी बार उन्होंने दहेज की सारी सामग्री सीधे अयोध्या ही भिजवा दी। उन्हें लगा कि यहाँ देने पर तो वे फिर बाँटकर चले जायेंगे। गोस्वामीजी कहते हैं -
जनक अवधपुर दीन्ह पठाई। 1/333/1
इसका अर्थ है कि यह संसार तो आदान-प्रदान ही है। आप यदि लेते हैं तो देना आपकी बाध्यता है और इस देने के क्रम को आप जितना ही पवित्र बनायेंगे, उतनी ही ऊँची स्थिति जीवन में आती जायगी। इसलिए दान की प्रक्रिया को शुद्ध अंतःकरण से संपन्न करना चाहिये बुद्धि-चातुर्य का आश्रय लेकर नहीं।
एक व्यंग्यात्मक प्रसंग आता है कि एक सेठजी, एक बार किसी सत्संग में पहुँच गये। दान की व्याख्या करते हुए वहाँ कहा गया कि नाम की इच्छा न रखकर दिया जाने वाला दान ही सर्वश्रेष्ठ दान है, अत: अपना नाम छिपाकर ही दान देना चाहिये। उन्होंने भी यह बात सुनी और लौटकर घर आ गये। संयोगवश, उन्हें सत्संगी जानकर, एक संस्था के कुछ लोग उनके पास संस्था-हेतु कुछ दान लेने पहुँच गये। सेठजी ने तत्काल बड़ी प्रसन्नता से उन्हें कई लाख रुपयों का एक चेक काटकर दे दिया। उन लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ! इतना कृपण व्यक्ति एकाएक इतना उदार कैसे हो गया? इसे सत्संग का ही प्रभाव मानकर वे सब प्रसन्न हो गये। पर जब चेक को हाथ में लेकर उन्होंने ध्यानपूर्वक देखा तो पता चला कि सेठजी ने उस पर हस्ताक्षर ही नहीं किये हैं। इसका कारण पूछने पर सेठजी ने कहा- भाई! सत्संग में तो यही कहा गया था कि नाम के लिये दान नहीं देना चाहिये, अपना नाम छिपाकर दिया गया दान ही सबसे अच्छा होता है, इसलिए मैंने अपने हस्ताक्षर नहीं किये, क्योंकि हस्ताक्षर करते ही मेरा नाम प्रकट हो जायगा। अब यह तो चालाकी है, दान तो है ही नहीं! रामायण में बताया गया है कि भगवान् राम किस तरह से दान देते हैं।
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