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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814
आईएसबीएन :9781613016206

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


इस तरह रावण के जीवन में लाभ संतोष प्रदान करने के स्थान पर लोभ की दिशा में चला गया। रावण के जीवन में लोभ की पराकाष्ठा दिखायी देती है। संसार की सर्वश्रेष्ठ सुंदरियों को अपने महल में एकत्रित करने के बाद भी रावण चोर की भाँति श्री सीताजी का हरण करने के लिये जाता है। साधारण व्यक्ति के द्वारा की गयी चोरी तो समझ में आती है, कि अभाव के कारण चोरी की गयी, पर त्रैलोक्य-विजेता लंकेश्वर जब नकली साधु का वेष बनाकर चोरी करने के लिये जाता है, तो उसकी यह वृत्ति लाभ के साथ-साथ लोभ की वृद्धि का ही परिचायक है। इसीलिए दान का बहुत बड़ा महत्त्व है। लोभ कम करने का यही उपाय है कि आपने जो लाभ प्राप्त किया है, उसका उपयोग केवल अपने लिये ही न करके उसे अन्य लोगों को दें, बाँटें और इस प्रकार समाज और व्यक्ति के कल्याण की भावना से सबको उस लाभ में सम्मिलित करें।

'दान' देने में भी एक क्रम है। सबसे पहले आप वस्तु का दान देते हैं। फिर उसके बाद उस वस्तु में जो आपकी ममता है उसे भी हटा लेते हैं, अर्थात् ममता का भी दान कर देते हैं और इसके पश्चात् मैं दान देने वाला हूँ इस अहंता का दान कर देते हैं। इस प्रकार ममता और अहंता के त्याग के द्वारा जब सार्थक दान की प्रक्रिया पूरी होती है तब वह दान व्यक्ति और समाज के लिये कल्याणकारी बन जाता है।

भगवान् राम के विवाह में महाराज जनक ने बहुत अधिक दहेज दिया। गोस्वामीजी ने इसका विस्तृत वर्णन करते हुए लिखा कि बहुत बड़ी संख्या में घोड़े, हाथी, रथ तथा बड़ी मात्रा में मणि-माणिक्य, स्वर्ण वस्त्र आदि अनेक वस्तुएँ दहेज के रूप में प्रभु को महाराज जनक के द्वारा दी गयीं। इसे पढ़कर, आज भी, स्वार्थी लोग अपने पक्ष की बात ढूँढकर यही कहते हैं कि देखो! दहेज की प्रथा तो कितनी पुरानी है, वह तो रामायण काल में भी थी इसलिए हमारी दहेज की माँग तो रामायण के अनुकूल ही है। कुछ लोगों को रामायण के अन्य कोई प्रसंग भले ही याद न हों, पर ऐसे प्रसंग अवश्य याद रहते हैं। पर मैं यही कहता हूँ कि ठीक है, दहेज की परंपरा बड़ी पुरानी है, रामायण में इसका वर्णन है, पर रामायण में ही इसके आगे जो लिखा हुआ है उसे भी तो पढ़िये! गोस्वामीजी लिखते हैं कि जो वस्तुएँ दहेज में प्राप्त हुई, उन्हें महाराज दशरथ ने अपने पास नहीं रखा, अपितु -
दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा।

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