धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
अब मैं समझ गयी कि लंका-सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के एकमात्र स्वामी तो भगवान् राम ही हैं। आप धन्य हैं कि उनका कार्य करने के लिये जा रहे हैं।
लगभग मिलते-जुलते, दो शब्द हमारे सामने आते हैं - एक शब्द है लाभ और दूसरा शब्द है लोभ। लाभ की इच्छा तो, व्यक्ति चाहे संसारी हो अथवा महात्मा हो, सबको ही होती है। मानस में इसलिए यह नहीं कहा गया कि लाभ की इच्छा को छोड़ दो, अपितु यह कहा गया कि जो मिल जाय उतने ही लाभ से संतुष्ट हो जाना, यह भक्त का एक लक्षण है। भगवान् राम शबरीजी को नवधाभक्ति का उपदेश देते हुए यही कहते हैं कि --
आठवँ जथा लाभ संतोषा।
इस प्रकार लाभ तो स्वीकार्य है पर लोभ को त्याज्य और निंदनीय माना जाता है। हम जब इसके कारणों पर विचार करते हैं कि ऐसा क्यों होता है? तो सबसे पहले हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि दोनों की शब्द-रचना में भी एक विलक्षणता है। दोनों शब्दों में जो अक्षर हैं वे एक से ही हैं। लोभ और लाभ दोनों में ही ल और भ अक्षर विद्यमान हैं। पूछा जा सकता है कि दोनों शब्दों की संरचना में समान अक्षर होने पर भी लाभ को प्रशंसनीय और लोभ को निंदनीय क्यों माना जाता है? तो इसका एक बड़ा सुंदर साहित्यिक उत्तर दिया जा सकता है कि दोनों शब्दों में भले ही अक्षरों की दृष्टि से कोई अंतर न हो पर मात्रा का अंतर तो है ही! लाभ शब्द अक्षर ल में आ की मात्रा लगाने के बाद भ से संयुक्त करने पर बनता है। पर लोभ शब्द का निर्माण आ के स्थान पर ओ की मात्रा लगने से होता है। हम देखते हैं कि वर्णमाला में क्रम की दृष्टि से आ की मात्रा प्रारंभिक मात्रा है, पहली मात्रा है। मानो सरलता से जो मिल गया उतनी ही मात्रा से संतोष हो गया। इस बात की ओर यह शब्द संकेत करता है। पर लोभ को आ की मात्रा से ही संतोष नहीं होता अपितु जब मात्रा आ के बाद क्रमश: इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, से बढ़ते-बढ़ते ओ तक पहुँचती है तब कहीं जाकर यह शब्द बनता है।
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