धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
आप जानते ही हैं कि हम त्यागी-तपस्वी महापुरुषों के लिये बहुधा यही कहते हैं कि ये बड़े विरक्त महात्मा हैं। विरक्त अर्थात् रक्तरहित। तो क्या ऐसे महात्मा खून से रहित होते हैं? हम कह सकते हैं कि जैसे शरीर में रक्त होता है उसी प्रकार मन में भी रक्त होता है और उस रक्त का नाम है ममता और राग। व्यक्ति की ममता जब छूट जाती है, संसार के प्रति राग में जब कमी आती है और फिर जब वह सँभलकर खड़ा हो जाता है एवं कष्ट में भी भगवान् की कृपा का दर्शन करने लगता है, तो हम उसे विरक्त कह सकते हैं। जीवन में यदि सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो और उसमें भगवान् की कृपा दिखायी दे, ऐसी दृष्टिवाले तो बहुत से लोग मिल जाते हैं। पर गिरने के बाद, चोट लगने और रक्त बहने के बाद भी यदि लगे कि यह भी मेरे पुण्य का फल है, तो फिर निश्चयपूर्वक यह कहा जा सकता है कि उसके जीवन में सत्संग सही अर्थों में प्रतिफलित हुआ है। भगवान् राम ने यही बात वाल्मीकिजी से कही थी। उन्होंने कहा- महर्षि! मुझे वनवास इसीलिए मिला है कि मैंने कोई पुण्य किया होगा।
हनुमान जी का अभिप्राय यह था कि लंकिनी! तेरी बुद्धि में कितना बड़ा भ्रम है कि तू कहती है कि मैं चोरों को खाती हूँ! यदि सचमुच तुमने चोरों को खाने का व्रत लिया होता तो सबसे पहले रावण को खाती! क्योंकि असली चोर तो रावण ही है, जिसने सीताजी को चुराकर लंका में बंदिनी बना रखा है। उसे तो तुम स्वामी मानती हो और मैं उस चोरी का पता लगाने आया हूँ पर तुम मुझे चोर कह रही हो। पर हनुमानजी के द्वारा उसके सिर पर प्रहार करते ही उसकी बुद्धि ठीक हो गयी और वह हाथ जोड़कर हनुमानजी से कहने लगी- हे तात -
प्रविसि नगर कीजै सब काजा।
अब आप नगर में प्रवेश कीजिये। इसे पढ़कर तो यही लगता है कि पहरेदार चोर से मिल गया क्या? पर उसकी बुद्धि इतनी शुद्ध हो गयी कि उसे इस सत्य का साक्षात्कार हो गया कि लंका का वास्तविक राजा रावण नहीं है। वह हनुमानजी से आगे यही कहती है-
प्रविसि नगर कीजै सब काजा।
हृदय सखि कोसलपुर राजा।। 5/4/1
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