धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
तुम भी एक चोर हो इसलिए मैं तुम्हें खाऊँगी। हनुमान जी ने लंकिनी की बात सुनी तो वे तुरंत छोटे से बड़े बन गये और उसके सिर पर मुक्का मारा। इस प्रहार से वह मुँह के बल जमीन पर गिर पड़ी और उसके मुँह से रक्त निकलने लगा। पर एक अंतर भी दिखायी पड़ा। लोग जब गिरते हैं तो उठ नहीं पाते, पर धन्य हैं वे कि जो गिरने के बाद फिर से उठकर खड़े हो जाते हैं! गोस्वामीजी लिखते हैं कि -
पुनि संभारि उठी सो लंका।
लंकिनी ने अपने आपको सँभाला और उठकर खड़ी हो गयी। हनुमान जी ने उसे उठते देखकर यह नहीं कहा कि अरे! यह उठ गयी। एक मुक्का और लगाता हूँ। उन्होंने सोचा- बस! बहुत हो गया। लंकिनी उठकर हनुमान जी की स्तुति करने लगी। वह कहती है-
तात मोर अति पुन्य वहूता।
देखउँ नयन राम कर दूता।। 5/3/8
मेरा कितना बड़ा पुण्य है कि मैंने राम का दूत के दर्शन प्राप्त किये। मैं तो यही समझती हूँ कि-
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।। 5/4
स्वर्ग और मोक्ष के सुख से भी बड़ा क्षण भर का सत्संग-सुख है।
बड़ा आश्चर्य होता है यह पढ़कर! सत्संग में तो कुछ कथन-श्रवण की बात सामने आती है। पर हनुमान जी ने यहाँ न तो कोई कथा कही, न कोई उपदेश या भाषण दिया, उन्होंने तो बस एक मुक्का भर जमा दिया और लंकिनी कह रही है कि बड़ा अच्छा सत्संग हुआ!
पूछा जा सकता है - क्या मुक्केबाजी ही सत्संग है? सचमुच विचारपूर्वक देखने से यह बात ठीक लगती है। यद्यपि सत्संग में मीठी-मीठी और मनोरंजक बातें भी सुनने को मिलती हैं पर असली सत्संग तो वही है कि जहाँ पर प्रहार हो, मुक्का लगे। सत्संग में संत-महापुरुष, व्यक्ति के सिर पर मुक्का ही तो मारते हैं। अब इसका अर्थ भौतिक प्रहार के रूप में न ले लें। इसका संकेत है कि व्यक्ति के उन विचारों पर प्रहार जो ठीक नहीं है। इस प्रहार के द्वारा व्यक्ति को अपनी भूल का भान कराना ही इसका उद्देश्य है। सत्संग के फलस्वरूप, एक तो बुद्धि का दोष मिटता है और दूसरा व्यक्ति का रक्त बाहर निकल जाता है, व्यक्ति रक्त-रहित हो जाता है। इस प्रसंग में इस रक्त बहने का भी एक विशेष अर्थ है।
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