धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
मानो लोभ चाहता है कि लाभ की मात्रा निरंतर बढ़ती ही जाय- और, और, और! और जब यह स्थिति जीवन में आ जाय तब समझना चाहिये कि लाभ लोभ के रूप में परिवर्तित हो गया है। कहा भी गया है कि -
जो दस बीस पचास मिले,
सत होय हजारन लाख मँगेगी।
कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य,
पृथ्वीपति होन की चाह जगेगी।
स्वर्ग पताल को राज मिले,
तऊ तृष्ना अति आग लगेगी।
सुंदर एक संतोष बिना सठ,
तेरी तो भूख कभी न मिटेगी।।
इसका अभिप्राय है कि व्यक्ति इस सत्य को हृदयंगम कर ले कि अंततोगत्वा ये सब वस्तुएँ तो छूटनेवाली ही हैं, अत: उनसे धीरे-धीरे ममता को घटाकर उन्हें उचित अधिकारी को सौंप देना ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है। पर इसमें यह ध्यान देना भी अत्यावश्यक है कि कहीं हम उचित अधिकारी की खोज में ही न भटक जायँ।
इस संदर्भ में मुझे शाहजहाँपुर के एक परिचित का स्मरण आता है। उनका स्वभाव दान देने का था। पर उनका यह स्वभाव उनके बच्चों को अच्छा नहीं लगता था। वे सोचते थे कि ये तो सब कुछ बाँट दे रहे हैं। सीधे तो वे कह नहीं सकते थे, इसलिए कहा करते थे कि आप बिना सोचे-समझे जिस किसी को दिये चले जाते हैं! एक दिन उन्होंने अपने बच्चों से यही कहा कि तुम लोगों की बात मान लूँ हमको एक आयोग बैठाना पड़ेगा यह पता लगाने के लिये कि कौन अधिकारी है और कौन नहीं है! और तब एक ऐसी भी स्थिति आ सकती है कि कोई अधिकारी ही न मिल पाये! दान के पात्र की कसौटी को इतनी कड़ी भी मत बनाइये कि कोई अधिकारी पात्र ही न मिले और आपको दान न देना ही ठीक लगने लगे! ऐसी धारणा और ऐसा क्रम ठीक नहीं है।
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