लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814
आईएसबीएन :9781613016206

Like this Hindi book 0

मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


राजन्! तुम प्रसन्न मन से दो। इससे हम दोनों को ही आनन्द आयेगा और इन राजकुमारों का भी इसमें कल्याण होगा। विश्वामित्रजी महाराज दशरथ को समझाते हुए कहते हैं - धन-सम्पत्ति तो तुम्हारे पास थी ही, पुत्र नहीं थे जिन्हें तुमने यज्ञ के माध्यम से प्राप्त कर लिया। धन और पुत्र से आगे की वस्तु है यश! तुम अपने दो पुत्रों का जब मुझे दान कर दोगे तो तुम्हें सुयश की प्राप्ति भी हो जायेगी-
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कहँ,

और साथ-साथ
इन्ह कहँ अति कल्यान।

राजन्! दान देने वाला कभी घाटे में रहता ही नहीं है। इन बालकों को भी इससे लाभ ही होगा। पर विडंबना यह है कि संसारी व्यक्ति की ममता इतनी प्रबल हो जाती है, वस्तु के प्रति इतना मेरापन जुड़ जाता है कि व्यक्ति सरलता से उन्हें अपने से अलग कर देना नहीं चाहता। महाराज दशरथ अपनी ममता के कारण विश्वामित्रजी को उलाहना भरे स्वर में कहते हैं - महाराज! आपने माँगा पर माँगने से पहले इस पर विचार नहीं किया। मानो दशरथजी तो हो गये विचारक और विश्वामित्र जी हैं विचारशून्य। वस्तुत: ममता के कारण व्यक्ति को यही लगता है। वे कहते हैं
चौथे पन पायउँ सुत चारी।
बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी।। 1/207/2

महाराज! आपको विचारपूर्वक माँगना चाहिये था। सत्य तो यही है कि दशरथजी ही विचारपूर्वक नहीं बोल रहे हैं। यदि उनका एक ही पुत्र होता तो वे अस्वीकार कर देते, कह देते - महाराज! एक ही पुत्र है, बताइये कैसे दे दूँ? पर वे कहते हैं - ब्राह्मण देवता! मेरे तो बस चार ही पुत्र हैं। उनसे पूछा जा सकता है - कितने बेटों से आपको संतोष होगा? दशरथजी आगे कहते हैं - महाराज! आप यह न समझियेगा कि मैं कंजूस हूँ -
मांगहु भूमि धेनु धन कोसा।
सर्बस देउँ आजु सहरोसा।।
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं।
सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं।।
सब सुत मोहि प्रिय प्रान की नाई।
राम देत नहिं बनइ गोसाई।। 1/207/3,5

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book