धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
मैं अपना राजपाट, धन-सम्पत्ति आदि सब कुछ यहाँ तक कि अपने प्राण तक, दे सकता हूँ पर राम को नहीं दे सकता। सुनकर विश्वामित्रजी ने कुछ नहीं कहा, पर-
तब वसिष्ठ बहुबिधि समुझावा।
नृप संदेह नास कहँ पावा।। 1/207/8
उस समय वशिष्ठजी ने सच्चे गुरु की भूमिका का निर्वाह करते हुए महाराज दशरथ को समझाया।
हमारे शास्त्रों में ऐसा भी वर्णन प्राप्त होता है कि जिसमें कहा गया है कि किस प्रकार के दान से कौन सा फल प्राप्त होता है। यह बात मनुष्य के स्वभाव को दृष्टिगत रखकर ही लिखी गयी है। किसी कंजूस व्यक्ति से दान या चंदा माँगा जाय तो उसे बुरा लगेगा। पर यदि उससे ब्याज पर पैसा माँगा जाय तो वह बड़ी प्रसन्नता से दे देगा। क्योंकि उसे आशा है कि पैसा और अधिक होकर लौटेगा। वशिष्ठजी ने कुछ-कुछ इसी पद्धति से महाराज दशरथ को समझाया। उन्होंने कहा- तुम जानते हो ये कितने बड़े महात्मा हैं। तुम इन्हें देकर तो देखो, इस दान से तो लाभ ही लाभ होगा। गुरु वशिष्ठजी की बात बिलकुल ठीक निकली।
भगवान् को कीर्ति मिली, सम्मान मिला और जनकनंदिनी श्री सीताजी से उनका विवाह हुआ। इतना ही नहीं, शेष तीनों भाइयों का विवाह भी इसी माध्यम से सम्पन्न हुआ। दशरथजी ने दो पुत्र ही दिये थे पर जब वे जनकपुर से लौटे तो चार पुत्र और चार वधुओं को साथ लेकर लौटे। दो दिये और लौटे आठ को लकर, इस प्रकार चौगुना लाभ तो हो ही गया।
शास्त्रों में जो यह कहा गया कि दान के बदले फल की प्राप्ति होती है, उसे किसी अन्य दृष्टि से न देखकर इस रूप में देखा जा सकता है कि जैसे जमीन में बीज डालने से वृक्ष बनता है और फिर फल लगते हैं, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। शास्त्र का विधान व्यक्ति को, यज्ञ को जीवन में स्वाभाविक कर्म के रूप में ग्रहण करने की प्रेरणा देता है। दान व्यक्ति का सहज कर्म बन जाय, शास्त्र को यही अभीष्ट है।
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