धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
महाराज दशरथ की कामना पूर्ण हुई और ईश्वर ही चार पुत्रों के रूप में आ गया। उनकी बाल-लीलाओं तथा उनके शील और सौंदर्य को देखकर राजा ही क्या समस्त अयोध्यावासी परमानन्द में निमग्न हो गये। एक दिन विश्वामित्र जी अयोध्या में आये और उन्होंने कहा कि राजन्! मेरे यज्ञ पर संकट पड़ा हुआ है उसकी रक्षा के लिये मैं तुम्हारे दो पुत्रों को माँगने आया हूँ। महाराज दशरथ ने जब यह बात सुनी तो वे बड़े गम्भीर हो गये और कह दिया कि यह तो सम्भव नहीं है।
वस्तुत: सत्य तो यही है कि व्यक्ति को देना ही पड़ता है चाहे वह सुख से अथवा दुखी होकर दे। व्यक्ति इस संसार में लोभ से अथवा श्रम के द्वारा किसी प्रकार चाहे जितना भी धन सम्पत्ति एकत्रित कर ले पर यहाँ से जाते समय वह कुछ भी अपने साथ लेकर नहीं जा सकता। जब सब कुछ छूट जायेगा तो फिर दूसरों को ही तो मिलेगा। इसलिए जो वस्तु छूट जाने वाली है या फिर छीन ली जाने वाली हो उसे दूसरे को देकर व्यक्ति जीते जी कम से कम यश की प्राप्ति तो कर ही सकता है। अपने हाथों दान करने से व्यक्ति को संतोष होता है। यदि सब कुछ पीछे छूट जाय अथवा कोई बलात् छीन ले जाय तो ऐसी स्थिति में केवल दुःख ही हाथ आता है। व्यक्ति यदि इस सत्य को समझ ले तो उसे देने में आनन्द मिलने लगेगा। विश्वामित्र जी ने महाराज दशरथ से यही कहा कि राजन्! अपने चार पुत्रों में से दो पुत्र मुझे दे दो।
एक व्यंग्य गाथा आती है। एक वृद्ध सज्जन किसी स्टेशन से रेलगाड़ी में चढ़े। उन्हें बैठने की जगह नहीं मिली, अत: बेचारे खड़े रहे। कुछ समय बाद एक स्टेशन आया जहाँ पर एक नवयुवक यात्री को उतरना था। वह युवक उतरते समय उस वृद्ध सज्जन से कहने लगा - बाबा! लीजिये मैं अपनी सीट आपको दिये जा रहा हूँ। बूढ़े बाबा ने व्यंग्य से मुस्कराते हुए कहॉ - बेटा! यह तो आपकी सीट है न! इसे साथ ही लेते जाइये, आप क्यों दिये जा रहे हैं? इसका तात्पर्य है कि जब आप ले ही नहीं सकते तो ऐसी स्थिति में देने का भी कोई अर्थ नहीं बनता। यदि प्रारंभ में ही उस नवयुवक ने बूढ़े बाबा को वह सीट दे दी होती, तब उसका वह देना सार्थक माना जाता। अब तो उसे छोड़कर जाना ही पड़ेगा, यह देना कहाँ से हुआ? -
देहु भूप मन हरषित तक मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कहँ इन्ह कहँ अति कल्यान।। 1/207
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