धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
हमारे शास्त्र बताते हैं कि मन्त्रों में अमित सामर्थ्य है, हम उनसे शक्ति प्राप्त कर उसका सदुपयोग कर सकते हैं और चाहें तो उस शक्ति का दुरुपयोग भी कर सकते हैं। हम उस शक्ति से लोककल्याण के कार्य सम्पन्न कर सकते हैं और चाहें तो उसका प्रयोग दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में भी कर सकते हैं। महाराज दशरथजी के यज्ञ के लिये कहा गया कि श्रृंगी ऋषि के आचार्यत्व में चलने वाला वह यज्ञ यद्यपि पुत्र की कामना से सम्पन्न किया गया पर वह लोक कल्याणकारी होने से बड़ा शुभ यज्ञ था। गोस्वामीजी कहते हैं कि -
सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा।
पुत्रकाम सुभ जग्य करावा।।
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें।
प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें।। 1/188/5,6
जब आहुतियाँ दी गयीं तो अग्निदेव हाथ में चरू लेकर प्रकट हो गये। यज्ञ में भी आदान-प्रदान है। इस प्रकार यह देने और लेने का जो क्रम है मानो वह सृष्टि से जुड़ा हुआ है, ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि बनायी तो यही कहा भी कि -
सहयज्ञा प्रजा: सूष्ट्वा पुरोवाचे प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोस्त्विष्टकामधुक्।। गीता-3/10
मैं तुम्हारे लिये यज्ञ का विधान देता हूँ तुमलोग यज्ञ के द्वारा देवताओं की कामना पूरी करो और देवता तुम्हारी कामनाएँ पूरी करेंगे यही यज्ञ का पहला पाठ है। अग्निदेव ने प्रकट होकर चरू महाराज दशरथ के हाथ में दे दिया। मानो अग्निदेव ने लिया ही नहीं, दिया भी। साथ ही उन्हें आदेश भी दे दिया कि -
यह हवि बाँटि देहु नृप जाई।
जथा जोग जेहि भाग बनाई।। 1/188/8
इसका: यथायोग्य वितरण करो, ऐसा न हो कि जो रानी तुम्हें प्रिय हो उसे ही सब चरू दे दो। यज्ञ का तात्पर्य भी यही है कि जो कुछ पाइये उसे बाँटिये अवश्य! कामना से प्रेरित यज्ञ से जो फल मिले यदि उसे बाँट दिया जाय तो वह कामना और यज्ञ दोनों ही शुभ हैं। पर यदि उसका उपयोग केवल अपनी ममता और स्वार्थ की पूर्ति हेतु होगा, तब अशुभ ही कहा जायेगा।
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