धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
प्रभु! यदि आप चाहते हों कि बिना किसी फलाकांक्षा के निष्काम भाव से धर्म का पालन किया जाय, तो उसके योग्य अधिकारी तो नरश्रेष्ठ, धर्म-धुरीन भैया भरत ही हैं। प्रभु! आप उनको जितना भी भार देना चाहें, वे उसे उठा लेंगे! पर मुझसे तो आप किसी भी प्रकार के भार उठाने की आशा ही न रखें। फिर लक्ष्मणजी उसी शब्द का उपयोग करते हुए कहते हैं -
मैं सिसु प्रभु सनेह प्रतिपाला।
महाराज! मैं तो दुधमुँहा बालक हूँ और आपके स्नेह को छोड़कर मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। लक्ष्मणजी प्रभु से पूछते हैं कि अगर कोई हंस के नन्हें से बच्चे को देखें और कहें कि तुम्हारी परीक्षा यह है कि देखें, तुम कितना बोझ उठा लेते हो। तो प्रभु क्या यह उसके प्रति न्याय है? क्योंकि मेरु पर्वत को उठाना, यह हंस के बच्चे का कार्य नहीं है-
मैं सिसु प्रभु सनेह प्रतिपाला।
मंदर मेरु कि लेहि मराला।। 2/71/3
और प्रभु! आपने यह जो कहा है कि घर में रहो और माता-पिता तथा गुरुजी की सेवा करो, तो महाराज! मैं इन सबको जानता ही नहीं-
गुरु पितु मातु न जानउँ काहू।
कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू।। 2/71/4
यह लक्ष्मणजी की अनन्यता है! वैसे लक्ष्मणजी का यह वाक्य बहुत ऊँचा नहीं है क्योंकि ऐसा कहनेवाले तो बहुत से लोग मिल जाते हैं। बहुधा तो लोग यही कहते ही हैं कि हम किसी को नहीं जानते, हम किसी को नहीं मानते पर यदि सचमुच! जिसके जीवन में एकमात्र ईश्वर को छोड़कर अन्य कोई कामना या वासना नहीं है, उसके लिये किसी कर्तव्य कर्म का प्रश्न ही नहीं उठता।
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