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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814
आईएसबीएन :9781613016206

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


इसी प्रकार संसार में व्यक्ति भी सद्गुण चाहता है, कीर्ति चाहता है, सम्मान आदि चाहता है। इसका अर्थ यही है कि व्यक्ति बड़ा होना चाहता है।

पर लक्ष्मणजी जीवनभर दुधमुँहे ही बने रहे। एकमात्र ईश्वर की कृपा और प्रेम रूपी दुग्ध को छोड़कर उन्होंने किसी अन्य वस्तु की कभी कोई कामना नहीं की और न ही आवश्यकता समझी। वे तो बस ईश्वर की गोद में उसकी करुणा, स्नेह और कृपा से ही पले हुए हैं। इसलिए, आज जब प्रभु बनगमन के समय लक्ष्मणजी को उपदेश देने लगे तो लक्ष्मणजी ने प्रभु को स्मरण दिलाया- महाराज! आपने ही तो मुझे दुधमुँहा बालक कहा था, तो अब वह बालक बड़ा हो गया क्या? प्रभु क्या आपको यह लगने लगा कि मैं बदल गया हूँ? अब प्रभु क्या कह सकते हैं? वे मौन हैं। वे जानते हैं कि लक्ष्मण तो पूरा दुधमुँहा बालक ही है। लक्ष्मणजी ने प्रभु से कहा - महाराज! आप जो उपदेश दे रहे हैं कि धर्मपालन के द्वारा पृथ्वी पर यश और ऐश्वर्य मिलता है तथा मृत्यु के बाद स्वर्ग मिलता है, पर आप मुझे यह बताइये कि जिसे ये तीनों वस्तुएँ- यश, ऐश्वर्य और स्वर्ग नहीं चाहिये, उसके लिये आपके द्वारा जो धर्म-कर्म का उपदेश दिया गया है, उसका पालन करना अनिवार्य है क्या?

अब प्रभु क्या कहें? क्योंकि आप दाम तो उसी से ले सकते हैं, जिसे वस्तु चाहिये। लक्ष्मणजी यही कहते हैं -
धरम नीति उपदेसिअ ताही।
कीरति भूति सुगति प्रिय जाही।। 2/71/7

महाराज! मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिये।

यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या सब, इन तीनों वस्तुओं को पाने के लिये ही धर्म का पालन करते हैं? क्या कोई ऐसा निष्काम व्यक्ति नहीं हो सकता जो कुछ न चाहते हुए भी धर्म का पालन करे? लक्ष्मणजी इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीभरतजी की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि --
नरबर धीर धरम धुर धारी।
निगम नीति कहुँ ते अधिकारी।। 2/71/2

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