धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
'मानस' में गोस्वामीजी ने इस प्रसंग में प्रभु के वचन के लिये जो विशेषण दिये हैं वे बड़े सांकेतिक हैं। गोस्वामीजी कहते हैं कि भगवान् राम के वचन सुनने में तो मृदु-कोमल हैं और उनके अर्थ बड़े गूढ़ हैं-
सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। 1/283/6
इसलिए सुनने में जो अर्थ सामने आता है, यदि उस पर विचार किया जाय तो एक दूसरा अर्थ भी समझ में आता है।
प्रभु की बात सुनकर ऐसा लगता है कि मानो वे परशुरामजी से प्रार्थना कर रहे हों कि महाराज! लक्ष्मण तो एक अबोध दुधमुँहा बच्चा है, अत: इस पर क्रोध न करके कृपा कीजिये और इसे क्षमा कर दीजिये। पर विचार करने पर हम देखते हैं कि भगवान् राम मानो परशुरामजी को संकेत करते हैं और कहते हैं - महाराज! आपने ध्यान दिया कि लक्ष्मण कितना निश्चिन्त और निर्भय है? यह आपकी किसी भी बात से जरा-सा प्रभावित दिखायी नहीं देता। लक्ष्मणजी, परशुरामजी से न तो डरते हैं और न प्रभावित ही होते हैं, क्योंकि वे तो-
प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा। 1/52/2
परम ब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीरामचन्द्र का प्रभाव जानते हैं। सचमुच, जिसने ईश्वर का प्रभाव जान लिया हो उसे अन्य कोई क्या प्रभावित कर सकता है? जीवन में असली हीरे को धारण करनेवाला व्यक्ति क्या नकली हीरे या चमकीले काँच से प्रभावित हो सकता है? उस व्यक्ति के लिये तो इसका कोई मूल्य या महत्त्व हो ही नहीं सकता। इसलिए लक्ष्मणजी परशुरामजी से न तो प्रभावित होते हैं और न ही भयभीत होते हैं।
संसार में जन्म लेने वाला बालक प्रारंभ में माँ के दूध पर ही आश्रित रहता है। पर यह बालक ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है, तो वह फिर दुधमुँहा नहीं रह जाता, क्योंकि तब उसकी आवश्यकता भी बढ़ती चली जाती है। यह कहने लगता है - यह भी चाहिये वह भी चाहिये।
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