धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
इस प्रकार दो व्यक्तित्व हमारे सामने आते हैं। एक ओर श्रीभरत जी हैं जिन्होंने फलाकांक्षा-रहित निष्काम कर्मयोग को, समर्पण के तत्त्व को अपने जीवन-आचरण में चरितार्थ करके दिखाया है। दूसरी ओर लक्ष्मण जी का महान् व्यक्तित्व है जिसमें ईश्वर को छोड़कर अन्य किसी का कोई प्रवेश नहीं है। वे अनन्यतापूर्वक ईश्वर के स्नेह से जुड़े हुए हैं। संसार के अधिकांश व्यक्ति कामनाओं की प्रेरणा से ही कर्म करते हैं। भगवान् कृष्ण, इसीलिए गीता में अर्जुन से प्रारंभ में ही पूर्ण निष्काम हो जाने की बात नहीं कहते। वे कहते हैं -
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गं जिला वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। गीता 2/37
अर्जुन! तुम लड़ोगे तो मारे जाओगे अथवा विजयी बनोगे। यदि जीतोगे तो राजा बनकर पृथ्वी का सुख भोगोगे और यदि रणक्षेत्र में मृत्यु हो गयी तो स्वर्ग के भोगों को प्राप्त करोगे। अत: युद्धकर्म के लिये निश्चयपूर्वक खड़े हो जाओ। इसलिए जो बात हमारी कक्षा की हो, उससे प्रारंभ करके क्रमश: आगे की बात कहनी चाहिये। क्योंकि व्यक्ति के जीवन में कामनाएँ तो होती ही हैं, अत: प्रारम्भ में कर्म का सम्पादन तो फल की इच्छा से ही प्रेरित होगा और उस इच्छा को छिपाकर अपने आप को निष्काम दिखाने की चेष्टा का परिणाम वैसा ही भयावह होगा जैसा कि प्रतापभानु के जीवन में दिखायी देता है।
पूछा जा सकता है कि क्या इसका यह अर्थ है कि हम निरंतर कामनाओं में ही, 'काम' में ही डूबे रहें? निरंतर क्रोध करते रहें? और चाहे जितना लोभ करते रहें? इसका उत्तर देते हुए यही कहा गया कि नहीं, नहीं! हमें इन सबको क्रमश: नियंत्रित करना होगा, मर्यादित करना होगा और इन्हें कल्याणकारी बनाना होगा।
व्यक्ति यश, सुख और ऐश्वर्य आदि की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये ही कर्म करता है। दान भी एक कर्म ही है। इस संदर्भ में रामचरितमानस में उत्कृष्ट दान का एक प्रसंग आता है, जब महर्षि विश्वामित्र महाराज दशरथ के पास श्रीराम और श्रीलक्ष्मणजी को माँगने के लिये आते हैं।
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