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वीर बालक
वीर बालक
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9731
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आईएसबीएन :9781613012840 |
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
उत्साह में भरकर भीमसेन ने कहा- 'सातवाँ द्वार तो मैं अपनी गदा से तोड़ दूँगा।' धर्मराज युधिष्ठिर यद्यपि नहीं चाहते थे कि बालक अभिमन्यु को व्यूह में भेजा जाय, परंतु दूसरा कोई उपाय नहीं था। अभिमन्यु अतिरथी योद्धा थे और नित्य के युद्ध में सम्मिलित होते थे। उनका आग्रह भी था इस विकट युद्ध में स्वयं प्रवेश करने का। दूसरे दिन प्रातःकाल युद्ध प्रारब्ध हुआ। द्रोणाचार्य ने व्यूह के मुख्य द्वार की रक्षा का भार दुयोंधन के बहनोई जयद्रथ को दिया था। जयद्रथ ने कठोर तपस्या करके यह वरदान भगवान् शंकर से प्राप्त कर लिया था कि अर्जुन को छोड़कर शेष पाण्डवों को वह जीत सकेगा। अभिमन्यु ने अपनी बाण-वर्षा से जयद्रथ को विचलित कर दिया और वे व्यूह के भीतर चले गये, किंतु शीघ्र ही जयद्रथ सावधान होकर फिर द्वार रोककर खड़ा हो गया। पूरे दिन भर शक्तिभर उद्योग करने पर भी भीमसेन या दूसरा कोई भी योद्धा व्यूह में नहीं जा सका। अकेले जयद्रथ ने वरदान के प्रभाव से सबको रोक रखा।
पंद्रह वर्ष के बालक अभिमन्यु अपने रथ पर बैठे शत्रुओं के व्यूह में घुस गये थे। चारों ओर से उनपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा हो रही थी; किंतु इससे वे तनिक भी डरे नहीं। उन्होंने अपने धनुष से पानी की झड़ी के समान चारों ओर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। कौरवों की सेना के हाथी, घोड़े और सैनिक कट-कटकर गिरने लगे। रथ चूर-चूर होने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। सैनिक इधर-उधर भागने लगे। द्रोणाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, शल्य आदि बड़े-बड़े महारथी सामने आये; किंतु बालक अभिमन्यु की गति को कोई भी रोक नहीं सका। वे दिव्यास्त्रों को दिव्यास्त्रों से काट देते थे। उनकी मार के आगे आचार्य द्रोण और कर्ण तक को बार-बार पीछे हटना पड़ा। एक-पर-एक व्यूह के द्वार को तोड़ते, द्वाररक्षक महारथी को परास्त करते हुए वे आगे बढ़ते ही गये। उन्होंने छ: द्वार पार कर लिये।
अभिमन्यु अकेले थे और उन्हें बराबर युद्ध करना पड़ रहा था। जिन महारथियों को उन्होंने पराजित करके पीछे छोड़ दिया था, वे भी उन्हें घेरकर युद्ध करने आ पहुँचे थे। इस सातवें द्वार का मर्मस्थल कहाँ है, यह वे जानते नहीं थे। इतने पर भी उनमें न तो थकान दीखती थी और न उनका वेग ही रुकता था। दूसरी ओर कौरव-पक्ष के बड़े-बड़े सभी महारथी अभिमन्यु के बाणों से घायल हो गये थे। द्रोणाचार्य ने स्पष्ट कह दिया- 'जबतक इस बालक के हाथ में धनुष है, इसे जीतने की आशा नहीं करनी चाहिये।’
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