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वीर बालक
वीर बालक
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9731
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आईएसबीएन :9781613012840 |
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178 पाठक हैं
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
वीर बालक अभिमन्यु
महाभारत का युद्ध चल रहा था। भीष्म पितामह शरशय्या पर गिर पड़े थे और द्रोणाचार्य कौरवपक्ष के सेनापति हो गये थे। दुर्योधन बार-बार आचार्य से कहता था- 'आप पाण्डवों का पक्षपात करते हैं। आप ऐसा न करें तो आपके लिये पाण्डवों को जीत लेना बहुत ही सरल है।' आचार्य ने उत्तेजित होकर कहा- 'अर्जुन के रहते पाण्डवपक्ष को देवता भी नहीं जीत सकते। तुम यदि अर्जुन को कहीं दूर हटा सको तो मैं शेष सभी को हरा दूँगा। दुर्योधन के उकसाने पर संशप्तक नामक वीरों ने अर्जुन को युद्ध के लिये चुनौती दी और उन्हें संग्राम की मुख्य भूमि से दूर युद्ध करने के लिये वे ले गये। यहाँ द्रोणाचार्य ने अपनी सेना के द्वारा चक्रव्यूह नामक व्यूह बनवाया। जब युधिष्ठिरजी को इस बात का पता लगा, तब वे बहुत निराश एवं दुःखी हो गये। पाण्डव-पक्ष में एकमात्र अर्जुन ही चक्रव्यूह तोड़ने का रहस्य जानते थे। अर्जुन के न होने से पराजय स्पष्ट दिखायी पड़ती थी। अपने पक्ष के लोगों को हताश होते देख अर्जुन के पंद्रह वर्षीय पुत्र सुभद्राकुमार अभिमन्यु ने कहा- 'महाराज! आप चिन्ता क्यों करते हैं? मैं कल अकेला ही व्यूह में प्रवेश करके शत्रुओं का गर्व दूर कर दूँगा।'
युधिष्ठिर ने पूछा- 'बेटा! तुम चक्रव्यूह का रहस्य कैसे जानते हो?'
अभिमन्यु ने बताया- 'मैं माता के गर्भ में था, तब एक दिन पिताजी ने मेरी माता से चक्रव्यूह का वर्णन किया था। पिताजी ने चक्रव्यूह के छ: द्वार तोड़ने की बात बतायी, इतने में मेरी माता को नींद आ गयी। पिताजी ने उसके आगे का वर्णन नहीं किया। अत: मैं चक्रव्यूह में प्रवेश करके उसके छ: द्वार तोड़ सकता हूँ किंतु उसका सातवाँ द्वार तोड़कर निकल आने की विद्या मुझे नहीं आती।'
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