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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> दिव्य संदेश

दिव्य संदेश

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :29
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9692
आईएसबीएन :978-1-61301-245

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सरल भाषा में शिवपुराण


7. किसी दूसरे के धर्मपर किसी प्रकारका आक्षेप न कर ईर्ष्या, वैमनस्य और प्रतिहिंसा आदि कुभावों का परित्याग कर संसार में सबको सुख पहुँचाते हुए विचरना चाहिये।

जो लोग अपने धर्म को पूर्ण बताकर दूसरेके धर्म की अपूर्णता सिद्ध करते हैं, वे वास्तवमें परमात्माके तत्त्वको नहीं जानते। यदि मैं एक धर्म का विरोध करता हूँ, उस धर्म को भला-बुरा कहता हूँ तो दूसरेके द्वारा मुझे अपने धर्मके लिये भी वैसे ही अपशब्द सुनने पड़ते हैं। इससे मैं उसके साथ ही अपने धर्म का भी अपमान करता हूँ; क्योंकि ऐसा करनेमें मुझे अपने ईश्वर को औऱ धर्म को सर्वव्यापी और सार्वभौम पद की सीमा से संकुचित करना पड़ता है।

किसी-न किसी अंश में सभी धर्मों में परमात्मा का भाव विद्यमान है, अतएव किसी भी धर्मका तिरस्कार या अपमान करना अपने ही परमात्मा का अपमान करना है। अतएव जो मनुष्य धर्म के नामपर कलह और अशान्तिमूलक परस्पर के कटु विवादों में न पड़कर गीताधर्म के अनुसार आचरण करता हुआ दम्भरहित होकर ईश्वर का पवित्र नाम लेता है और उस नामसे पाप करने, भोग प्राप्त करने एवं पाप-नाश होने की भी कामना नहीं करता, वह बहुत ही शीघ्र काम, क्रोध, असत्य, व्यभिचार औऱ कपट आदि सब दुर्गुणोंसे छूटकर अहिंसा, सत्य आदि सात्त्विक गुणों से उसका मन हटकर सर्वदा ईश्वरके चिन्तनमें लग जाता है और इससे वह अपनी भावना के अनुसार परमात्मा के परम तत्त्व का और उसके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान और प्रत्यक्ष दर्शन लाभ कर कृतार्थ हो जाता है।

परमात्माका नाम ऐसा विलक्षण है कि उसके स्मरण, उच्चारण और श्रवणमात्र से ही पापों का नाश होता है।
जो लोग स्वयं परमात्माका नाम-जप करते हैं, दूसरोंको सुनाते हैं, कहींपर बैठकर परमात्मा के नाम का गान करते हैं वे अपने कल्याण के साथ-ही-साथ संसार के अनेक जीवोंका बडा उपकार करते हैं। इसलिये सबको परमात्माके शुभ नामकी शरण लेकर स्वयं उसका स्मरण, जप औऱ कीर्तन करना चाहिये और दूसरे लोगों को प्रेमपूर्वक इस महान् कार्य में लगाना चाहिये।

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