आचार्य श्रीराम किंकर जी >> दिव्य संदेश दिव्य संदेशहनुमानप्रसाद पोद्दार
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सरल भाषा में शिवपुराण
6. इन सब बातोंको जानकर ईश्वरका तत्त्व समझने और तदनुसार जगत में कर्म करने के लिये राह बतलाने वाला कोई सार्वभौम ग्रन्थ चाहिये या ऐसा कोई उपादेय सिद्ध मार्ग चाहिये जिसपर आरूढ़ होते ही ठीक-ठिकाने से अपने लक्ष्यतक पहुँचा जा सके। हिंदुओं की दृष्टिसे ऐसे चार ग्रन्थोंके नाम बतलाये जा सकते हैं, जो कल्याण के मार्गदर्शक का बड़ा अच्छा काम दे सकते हैं।
(2) श्रीमद्भगवद्रीता,
(3) भागवत और
(4) तुलसीदासजी का रामचरितमानस।
(उपनिषदोंमें प्रधानत: ईश, केन आदि दस उपनिषदों को समझना चाहिये।)
ये ऐसे ग्रन्थ हैं कि जो मनुष्यमात्र को असली लक्ष्य तक पहुँचा सकते हैं। उपनिषदों की और गीता की प्रशंसा आज सारा जगत् कर रहा हैं। पाश्चात्य जगत के भी बडे-बड़े तत्वज्ञ विद्वानों ने उपनिषद और गीताधर्म को सार्वभौम धर्म माना है। यदि इन चारों का अध्ययन न हो सके तो इन चारों में एक छोटा-सा किंतु बड़ा ही उपादेय ग्रन्थ गीता है, जिसे हम सबके काम की चीज कह सकते हैं; इसी का अध्ययन करना चाहिये। गीता का अनुवाद अनेक भाषाओं में हो चुका है। यह सार्वभौम ग्रन्थ है। जिसको किसी ग्रन्थ विशेष का अध्ययन न करना हो वह गीताधर्म को ही अपना मार्गदर्शक बना सकता है।
गीताधर्म का अर्थ संक्षेप में इन शब्दों में किया जा सकता है-
(क) सब कुछ भगवानका समझकर सिद्धि-असिद्धिमें समभाव रखते हुए आसक्ति और फल की इच्छा का त्याग कर भगवत-आज्ञानुसार केवल भगवानके लिये ही समस्त कर्मों का आचरण करना तथा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मन, वाणी औऱ शरीर से सब प्रकार भगवानके शरण होकर उसके नाम गुण और प्रभावयुक्त स्वरूपका निरन्तर चिन्तन करना।
अथवा
(ख) सम्पूर्ण पदार्थ मृगतृष्णाके जलकी तरह अथवा स्वप्न के संसार की तरह मायामय होनेके कारण माया के कार्यरूप सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं ऐसा समझकर मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होनेवाले समस्त कर्मों में कर्तृत्वाभिमान से रहित होकर, सर्वव्यापी सच्चिदानन्दधन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहना। जिसमें एक सच्चिदानन्दधन परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी के भी अस्तित्व का भाव न रह जाय।”‘यही गीताका निष्काम कर्मयोग औऱ सांख्ययोग है, यही सार्वभौम धर्म है।’ इसके पालनमें सभी वर्ण और सभी जातियोंका समान अधिकार है। इसलिये-
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