आचार्य श्रीराम किंकर जी >> दिव्य संदेश दिव्य संदेशहनुमानप्रसाद पोद्दार
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सरल भाषा में शिवपुराण
4. भगवान का नाम भगवत्प्रेमके लिये ही लेना चाहिये। भगवान् मिलें या न मिलें, परंतु उनके नाम की विस्मृति न हो। प्रेमी अपने प्रेमी के मिलने से इतना प्रसन्न नहीं होता जितना उसकी नित्य स्मृति से होता है। यदि उसके मिल जाने पर कहीं उसकी स्मृति छूट जाती हो तो वह वही चाहेगा कि ईश्वर भले ही न मिलें परंतु उसकी स्मृति उत्तरोत्तर बढ़े, उसका नाश न हो। यही विशुद्ध प्रेम है।
5. नामसाधन में कहीं कृत्रिमता न आ जाय। वास्तव में आजकल जगत में दिखावटी धर्म -‘दम्भ’ बहुत बढ़ गया है। बड़े-बड़े धर्म के उपदेशक न मालूम किस सांसारिक स्वार्थ को लेकर कौन-सी बात कहते हैं, इस बात का पता लगाना कठिन हो जाता है। इस दम्भ के दोष से सबको बचना चाहिये। दम्भ कहते हैं बगुला-भक्ति को। अन्दर जो बात न हो और ऊपरसे मान-बड़ाई प्राप्त करने या किसी कार्यविशेष की सिद्धि के लिये दिखलायी जाय वही दम्भ है। दम्भी मनुष्य भगवान को धोखा देने का व्यर्थ प्रयत्न कर स्वयं बड़ा धोखा खाता है। भगवान् तो सर्वदर्शी होने से धोखा खाते नहीं वह धूर्त जो जगत् को भूलावे में डालकर अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है स्वयं गिर जाता है। पाप उसके चिरसंगी बन जाते हैं। पापों से उसकी घृणा निकल जाती है। ऐसे मनुष्य को धर्म का परम तत्त्व, जिसे परमात्मा का मिलन कहते हैं, कैसे प्राप्त हो सकता है? अतएव इस भयंकर दोष से सर्वथा बचना चाहिये।
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