आचार्य श्रीराम किंकर जी >> दिव्य संदेश दिव्य संदेशहनुमानप्रसाद पोद्दार
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सरल भाषा में शिवपुराण
2. परंतु परमात्मा का नाम लेने में लोग कई जगह बड़ी भूल कर बैठते हैं। भोगासक्ति और अज्ञान से उसकी ऐसी समझ हो जाती है कि हम भगवन्नाम का साधन करते ही हैं और नाम से कोई आपत्ति नहीं है। यों समझकर वे पापों को छोड़ना तो दूर रहा, भगवान के नाम की ओट या उसका सहारा लेकर पाप करने लगते हैं। एक मुकद्दमेबाज एक नामप्रेमी भक्त को गवाह बनाकर ले गया, उससे कहा कि“देखो, मैं जो कुछ तुमसे कहूँ, हाकिम के पूछने पर वही बात कह देना।” गवाह ने समझा कि यह मुझसे सच्ची ही बात कहने को कहेगा, पर उसकी बात सुनने पर पता लगा कि वह झूठ बात कहलाना चाहता है। इससे उसने कहा कि “भाई। मैं झूठी गवाही नहीं दूँगा।” मुकद्दमेबाज ने कहा कि “इसमें आपत्ति ही कौन-सी है। क्या तुम नहीं जानते कि भगवान के नाम से पापों का नाश होता है। तुम तो नित्य भगवान का नाम लेते ही हो। भक्त हो, जरा-सा झूठ से क्या बिगड़ेगा। एक ईश्वर के नाम में पाप-नाश की जितनी शक्ति है, उतनी मनुष्य में पाप करने की नहीं है। मैं तो काम पड़ने पर यों ही कर लिया करता हूँ।” उसने कहा “भाई। मुझसे यह काम नहीं होगा, तुम करते हो तो तुम्हारी मर्जी।” मतलब यह कि इस प्रकार परमात्मा के नाम या उसकी प्रार्थना के भरोसे जो लोग पाप को आश्रय देते हैं वे बड़ा अपराध करते हैं। वे तो पाप करने में भगवान के नाम को साधन बनाते हैं, नाम देकर बदले में पाप खरीदना चाहते हैं। ऐसे लोगों की दुर्गति नहीं होगी तो और किसकी होगी।
3. कुछ लोग जो संसार के पदार्थों की कामनावाले हैं; वे भी बड़ी भूल करते हैं। वे भगवान का नाम लेकर उसके बदले में भगवान से धन-सम्पत्ति, पुत्र-परिवार, मान बड़ाई आदि चाहते हैं। वास्तव में वे भी भगवन्नाम का माहात्म्य नहीं जानते। जिस भगवन्नाम के प्रताप से उस राजराजेश्वर के अखण्ड राज्य का एकाधिपत्य मिलता हो, उस नाम को क्षणभंगुर औऱ अनित्य तुच्छ भोगों की प्राप्ति के कार्य में खो देना मूर्खता नहीं तो क्या है?
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