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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> दिव्य संदेश

दिव्य संदेश

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :29
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9692
आईएसबीएन :978-1-61301-245

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सरल भाषा में शिवपुराण


3


समझो तुम जिन-जिन बातों को अपने हित मन से प्रतिकूल।
उन्हें न बरतो कभी किसी से, समझो इसे धर्म का मूल।।

जिन-जिन बातोंको तुम अपने लिये प्रतिकूल समझते हो उन्हें दूसरे किसी के साथ कभी बर्ताव में मत लाओ। इसे धर्मका मूल समझो।

4

दोष न देखो कभी किसीके, निन्दा-चुगली को दो त्याग।
सद्गगुण-सद्भावों को देखो, सेवा करो सहित अनुराग।।

कभी किसी के दोष मत देखो, किसी की निन्दा-चुगली करना छोड़ दो। सबके सद्गगुण और सद्भावों को देखो और प्रेम के साथ सेवा करो।

5

अपने सभी सुखों को समझो दुखियों से है लिया उधार।
वितरण कर उनको दुखियों में करो विषम ऋण का उद्धार।।

अपने सभी सुखोंको दु:खियों से उधार लिया हुआ समझो और उन्हें दु:खियों में वितरण करके भयानक ऋणसे अपना उद्धार करो।

6

पेट भरे उतने ही धन पर अपना हक है, अपना जोर।
इससे अधिक माननेवाला दण्डनीय है, हक का चोर।
यज्ञ-शेष जो खाता है, वह होता सब पापोंसे मुक्त।
अपने लिये कमाता केवल, खाता पाप, पाप-संयुक्त।।
सबको सब का हक देकर जो बचता, वही यज्ञ-अवशेष।
उससे जो जीवन-यापन करता उसके अघ होते शेष।।

जितने से पेट भरे, उतने ही धन पर अपना हक है और अपना वश है। इससे अधिक को जो अपना मानता है, वह हक का चोर दण्ड का पात्र है। जो ‘यज्ञसे बचा हुआ’ खाता है, वह सब पापों से मुक्त होता है; पर जो पापलिप्त मनुष्य केवल अपने लिये ही कमाता-खाता है, वह पाप खाता है। सबको सबका हक देने के बाद जो बच रहता है, वही ‘यज्ञसे बचा हुआ’ है; उस (यज्ञशेष) से जो अपना जीवन-यापन करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।

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