उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
आज बहुत दिनों के बाद एक निमंत्रित आत्मीय की तरह बिहारी महेंद्र के अंत:पुर में आया। छुटपन से ही जो घर उसका जाना-पहचाना रहा है, घर के लड़के ही तरह जहाँ उसने बचपन की शरारतें की हैं, उसी द्वार पर आ कर आज वह ठिठक गया। उसके अंतर के दरवाजे पर आँसू की एक लहर उमड़ उठने के लिए आघात करने लगी। उस चोट को पी कर होंठों में हँसी लिए अंदर गया और तुरंत नहा कर आई राजलक्ष्मी को प्रणाम करके उनके चरणों की धूल ली। जिन दिनों बिहारी हरदम वहाँ आया-जाया करता था, ऐसे प्रणाम की प्रथा न थी। आज मानो वह सुदूर प्रवास से घर लौटा हो। प्रणाम करके उठते ही स्नेह से राजलक्ष्मी ने उसके सिर पर स्पर्श किया।
आज गहरी संवेदनाओं के साथ राजलक्ष्मी ने बिहारी के प्रति पहले से ज्यादा स्नेह जताया। कहा - 'बिहारी, तू इतने दिनों से यहाँ क्यों नहीं आया? मैं रोज ही सोचती थी, आज जरूर आएगा, मगर तेरा पता नहीं?'
बिहारी ने हँस कर कहा - 'रोज आता होता, तो माँ रोज तुम अपने बिहारी को याद नहीं करतीं। कहाँ हैं महेंद्र भैया?'
राजलक्ष्मी उदास हो कर बोलीं - 'जाने कहाँ आज दावत है उसकी, रुक न सका।'
सुन कर बिहारी का मन परेशान हो गया। 'छुटपन की मैत्री का आखिर यह अंजाम?' एक लंबा नि:श्वास छोड़ कर मन से सारे विषाद को हटा देने की कोशिश करता हुआ बोला - 'अच्छा, क्या-क्या बना है।'
और वह अपने प्रिय व्यंजनों की बात पूछने लगा।
इतने में महेंद्र ने आ कर सूखे स्वर में पूछा - 'बिहारी, कैसे हो?'
राजलक्ष्मी बोलीं - 'दावत में नहीं गए?'
शर्म छिपाते हुए महेंद्र बोला - 'नहीं, गया।'
विनोदिनी नहा कर आई, तो पहले तो बिहारी कुछ बोल ही न सका। विनोदिनी और महेंद्र को जिस रूप में वह देख गया था, वह हृदय में अंकित ही था।
विनोदिनी उसके करीब आ कर बोली - 'क्यों भाई साहब, मुझे भूल गए हैं क्या?'
बिहारी बोला - 'सबको पहचाना जा सकता है क्या?'
विनोदिनी ने कहा - 'अगर थोड़ा-सा विचार हो तो जा सकता है।'
और उसने बुआ को पुकार कर कहा - 'बुआ, खाना तैयार है।'
महेंद्र और बिहारी खाने बैठ गए। राजलक्ष्मी पास बैठ कर देखने लगीं।
महेंद्र का ध्यान खाने पर न था। वह परोसने के पक्षपात पर गौर कर रहा था। उसे लगा, बिहारी को भोजन परोसते हुए विनोदिनी को मानो एक खास आनंद मिल रहा है। बिहारी की पत्तल पर ही दही की मलाई और रोहू मछली का सिर डाला गया। पर चूँकि वह मेजबान था इसलिए शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं थी। मौसम न होने पर भी तपसी मछली मिल गई थी। उनमें से एक थी अण्डे वाली। विनोदिनी उसे बिहारी की पत्तल पर परोसने जा रही थी कि उसने कहा - 'महेंद्र भैया को दो, उन्हें बड़ी प्रिय है यह।'
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