उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
|
10 पाठकों को प्रिय 103 पाठक हैं |
नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
रविवार महेंद्र के बड़े आग्रह का दिन होता। पिछली रात से ही उसकी कल्पना उद्दाम हो उठती - जो कि आज तक उसकी उम्मीद के अनुरूप हुआ कुछ भी न था। तो भी इतवार के सवेरे की आभा उसकी आँखों में अमृत बरसाने लगी। जागे हुए शहर की सारी हलचल अनोखे संगीत-जैसी उसके कानों में प्रवेश करने लगी।
मगर माजरा क्या है? आज कोई व्रत है माँ का? और दिन जैसा करती रही हैं, आज तो वह घर के काम-काज का खास भार विनोदिनी पर सौंप कर निश्चिंत नहीं है। आज खुद भी बहुत व्यस्त हैं वे।
इसी हंगामे में दस बज गए। इस बीच किसी भी बहाने महेंद्र एक पल के लिए भी विनोदिनी से न मिल सका। किताब में मन लगाना चाहा, बिलकुल न लगा। अखबार के एक विज्ञापन पर नाहक ही पन्द्रह मिनट तक नजर गड़ाए रहा। आखिर न रहा गया। नीचे गया। देखा, माँ खुद रसोई कर रही हैं और कमरे में आँचल बाँधे विनोदिनी उनकी मदद कर रही है।
महेंद्र ने पूछा - 'बात क्या है आज? बड़ी धूम-धाम है।'
राजलक्ष्मी बोलीं- 'बहू ने बताया नहीं तुम्हें? आज बिहारी को खाने के लिए बुलाया है।'
'बिहारी को निमंत्रण!' महेंद्र को सुन कर बहुत खराब लगा। उसने तुरंत कहा - 'मैं घर पर नहीं रहूँगा, माँ।'
राजलक्ष्मी - 'क्यों?'
महेंद्र - 'मुझे बाहर जाना है।'
राजलक्ष्मी - 'खा-पी कर जाना। ज्यादा देर न होगी।'
महेंद्र - 'मुझे भोजन के लिए निमंत्रण है।'
कनखियों से उसे देख कर विनोदिनी बोली - 'दावत है, तो जाने दो, बुआ! न हो बिहारी बाबू अकेले ही खा लेंगे।'
लेकिन अपने हाथ से जतन से पकाएँ और महेंद्र न खाए, यह उन्हें कैसे बर्दाश्त हो! वह जितना भी आग्रह करने लगीं, महेंद्र उतना ही टालने लगा।
इस तरह नाराज महेंद्र ने माँ को सजा देने की ठानी। राजलक्ष्मी की इच्छा हुई, रसोई छोड़ कर चल दें। विनोदिनी बोलीं- 'तुम फिक्र न करो, बुआ। भाई साहब यह सब बेकार की बातें कर रहे हैं - आज वह दावत पर हर्गिज नहीं जाएँगे।'
राजलक्ष्मी गर्दन हिला कर बोलीं, 'नहीं-नहीं बिटिया, तुम महेंद्र को नहीं जानतीं। वह एक बार जो तय कर लेता है, उससे नहीं डिगता।'
लेकिन साबित यही हुआ कि विनोदिनी महेंद्र को राजलक्ष्मी से कम नहीं जानती। महेंद्र ने समझा था कि बिहारी को विनोदिनी ने ही न्योता भिजवाया है। इससे उसका जी डाह से जितना जलने लगा, उतना ही उसके लिए बाहर जाना कठिन हो गया। बिहारी क्या करता है, विनोदिनी क्या करती है, यह देखे बिना वह भला जिए कैसे? देख कर जलना ही पड़ेगा, फिर भी देखना जरूरी था।
|