उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
महेंद्र तीखी दबी खीझ से बोल उठा - 'नहीं-नहीं, मुझे नहीं चाहिए।'
विनोदिनी ने दूसरी बार उससे अनुरोध नहीं किया और उसे बिहारी की पत्तल पर डाल दिया।
खाना खत्म हुआ। दोनों दोस्त बाहर निकले। विनोदिनी आ कर बोली, 'बिहारी बाबू चले मत जाना, चलिए, ऊपर के कमरे में बैठिए जरा देर।'
बिहारी ने पूछा - 'और तुम नहीं खाओगी।'
विनोदिनी बोली - 'आज मेरा एकादशी का व्रत है।'
तीखे व्यंग्य की एक हल्की हास्य-रेखा बिहारी के होंठों के किनारों पर खेल गई।
हँसी की यह लकीर विनोदिनी की निगाह से छिपी न रही, लेकिन जिस तरह वह हाथ के जख्म को सह गई थी - इसे भी पी गई। निहोरा करती हुई बोली - 'मेरे सिर की कसम, चलो, बैठो!'
महेंद्र अचानक अजीब ढंग से गर्म हो उठा। बोला - 'अक्ल से तो कोई वास्ता ही नहीं - काम-धाम पड़ा रहे, ख्वाहिश हो या न हो, बैठना ही पड़ेगा। इतनी ज्यादा खातिरदारी का मतलब मेरी समझ में नहीं आया।'
विनोदिनी ठठा कर हँस पड़ी। बोली - 'भाई साहब, खातिरदारी शब्द का कोश में दूसरा कोई मतलब नहीं।'
फिर महेंद्र से कहा - 'कहने को चाहे जो कहो भाई साहब, खातिरदारी का मतलब छुटपन से जितना तुम समझते हो, शायद ही कोई समझता हो।'
बिहारी बोला - 'महेंद्र भैया, एक बात है, सुन जाओ जरा!'
बिहारी ने विनोदिनी से विदा न माँगी और महेंद्र के साथ बाहर चला गया। बरामदे पर खड़ी विनोदिनी चुपचाप सूने आँगन को ताकती रही।
बाहर जा कर बिहारी ने कहा - 'भैया, एक बात का मैं खुलासा करना चाहता हूँ, हमारी दोस्ती क्या यहीं खत्म हो गई?'
उस समय महेंद्र के कलेजे में आग लग रही थी। विनोदिनी का व्यंग्य बिजली की लपट-सा उसके दिमाग के एक सिरे से दूसरे सिरे तक लपकता हुआ बार-बार उसे वेध रहा था। वह बोला - 'इस बात के फैसले से शायद ही तुम्हें कुछ लाभ हो, पर मेरे लिए यह काम्य नहीं। अपनी दुनिया में मैं किसी बाहरी आदमी का प्रवेश नहीं चाहता। अंत:पुर को मैं अंत:पुर रखना चाहता हूँ।'
बिहारी ने कुछ नहीं कहा। चला गया।
ईर्ष्या के दाह से जर्जर महेंद्र ने एक बार प्रतिज्ञा की - 'विनोदिनी से मैं नहीं मिलूँगा।' और फिर उससे मिलने की उम्मीद में वह घर-बाहर, ऊपर-नीचे छटपटाता हुआ चक्कर काटता रहा।
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