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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

साधुचरण ने कहा - 'अरे, अँधेरे में खड़े क्यों रह गए, अंदर आओ!'

बिहारी तेजी से दो-चार डग की तरफ बढ़ा और मुड़ कर बोला - 'नहीं, चलूँ मैं, काम है।' और जल्दी से लौट गया।

उसी रात बिहारी पश्चिम की ओर कहीं चला गया।

बिहारी घर पर नहीं मिला-दरबान विनोदिनी की चिट्ठी ले कर लौट आया। महेंद्र डयोढ़ी के सामने वाले बगीचे में टहल रहा था। उसने पूछा - 'किसकी चिट्ठी है?'

दरबान ने बताया। महेंद्र ने उससे चिट्ठी ले ली। एक बार तो जी में आया, चिट्ठी वह विनोदिनी को दे आए - कुछ कहे नहीं, सिर्फ विनोदिनी का लज्जित चेहरा देख आए। उसे इसमें जरा भी शक न था कि खत में लज्जा की बात जरूर है। याद आया, पहले भी एक बार उसने बिहारी को चिट्ठी भेजी थी। आखिर खत में है क्या, यह जाने बिना मानो उससे रहा ही न गया। उसने अपने आपको समझाया, 'विनोदिनी उसी की देख-रेख में है, उसके भले-बुरे का वही जिम्मेदार है। लिहाजा ऐसे संदेह वाले खत को खोल कर देखना वाजिब है। विनोदिनी को गलत रास्ते पर हर्गिज नहीं जाने दिया जा सकता।

खोल कर महेंद्र ने उस छोटी-सी चिट्ठी को पढ़ा। वह सहज भाषा में लिखी थी, इसलिए उसमें मन का सच्चा उद्वेग फूट पड़ा था। महेंद्र ने उसे बार-बार पढ़ा। खूब सोचा, मगर समझ नहीं सका कि विनोदिनी का झुकाव है किस तरफ। उसे रह-रह कर यही आशंका होने लगी, चूँकि मैंने यह कह कर उसका अपमान किया है कि मैं उसे प्यार नहीं करता, इसीलिए रूठ कर वह अपने मन को और तरफ लगाना चाहती है।

इसके बाद महेंद्र के लिए धीरज रखना असंभव हो उठा। जो लड़की अपने आपको उसके हाथों सौंप देने के लिए आई थी, वह महज जरा-सी गलती से उसके कब्जे से निकल जाएगी, यह सोच कर महेंद्र भीतर-ही-भीतर सुलगने लगा। मन में सोचा, 'विनोदिनी मन-ही-मन अगर तुझे चाहती है, तो उसकी खैर जानो - क्योंकि वह एक जगह बँधी रहेगी। अपने मन का तो मुझे पता है, मैं उस पर कभी जुल्म नहीं कर सकूँगा... वह मुझे निश्चिंत हो कर प्यार कर सकती है। मैं आशा को प्यार करता हूँ, मुझसे उसे कोई खतरा नहीं। यदि वह और किसी तरफ खिंची तो क्या अनर्थ होगा, वह कौन जानता है?'

महेंद्र ने निश्चय किया, 'अपने को प्रकट किए बिना किसी-न-किसी तरह फिर से विनोदिनी को अपनी ओर खींचना ही पड़ेगा।'

अंदर जाते ही महेंद्र ने देखा, विनोदिनी बीच में ही खड़ी उत्सुकता से किसी का इंतजार कर रही है और महेंद्र का मन डाह से जल उठा। बोला - 'नाहक इंतजार में खड़ी है, भेंट नहीं होने की। यह लीजिए, आपकी चिट्ठी लौट आई।'

कह कर उसने चिट्ठी उसकी ओर फेंक दी।

विनोदिनी बोली - 'खुली क्यों?'

महेंद्र जवाब दिए बिना ही चला गया। 'बिहारी ने चिट्ठी खोल कर पढ़ी और कोई जवाब न दे कर चिट्ठी वापस भेज दी' यह सोच कर विनोदिनी की सारी नसें दप-दप करने लगीं। उसने चिट्ठी ले जाने वाले दरबान को बुलवा भेजा। वह और कहीं चला गया था - न मिला। चिराग की कोर से जैसे गरम तेल की बूँदें टपक पड़ती हैं - बंद कमरे में विनोदिनी की दमकती हुई आँखों से आँसू टपक गए। उसने अपनी चिट्ठी के टुकड़े कर डाले, फिर भी उसे चैन न मिला। स्याही की उन दो-चार लकीरों को भूत और वर्तमान से पोंछ डालने की, कतई मनाही कर देने की गुंजाइश क्यों नहीं? गुस्से में आई मधुमक्खी जिस प्रकार हर सामने पड़ने वाले को काट खाती है, उसी प्रकार क्षुब्ध विनोदिनी अपने चारों ओर की दुनिया को जला डालने पर आमादा हो गई। मैं जो भी चाहती हूँ, उसी में रुकावट? किसी बात में कामयाबी नहीं!

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