उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
विनोदिनी सोचने लगी, 'आखिर ऐसी तोहमत लगाए जाने पर बिहारी ने प्रतिवाद क्यों नहीं किया? उसने झूठा प्रतिवाद भी किया होता, तो मानो विनोदिनी को खुशी होती। ठीक ही हुआ कि महेंद्र ने बिहारी पर ऐसी चोट की। यह उसका पावना ही था। आखिर बिहारी-जैसा आदमी आशा को प्यार क्यों करेगा? इस चोट ने बिहारी को दूर जो हटा दिया, मानो वह अच्छा ही हुआ।' -विनोदिनी निश्चिंत हो गई।
लेकिन मृत्यु-बाण से बिंधे बिहारी का रक्तहीन पीला मुखड़ा विनोदिनी के हर काम में उसके पीछे-पीछे घूमता-सा रहा। विनोदिनी के अंदर जो एक सेवापरायण नारी प्रकृति थी, वह उस कातर चेहरे को देख कर रोने लगी।
दो-तीन दिन तक वह सभी कामों में अनमनी रही। आखिर उससे न रहा गया। उसने एक सांत्वना पत्र लिखा - 'भाई साहब, तुम्हारा जो सूखा चेहरा देखा, है, तब से मैं हृदय से यही कामना करती हूँ कि तुम भले-चंगे हो जाओ, जैसे तुम थे, वैसे ही हो जाओ - तुम्हारी वह सहज हँसी फिर कब देखूँगी - वह उदार बातें फिर कब सुनूँगी; एक पंक्ति में अपनी कुशल मुझे लिख भेजो! - तुम्हारी विनोदिनी भाभी।'
दरबान की मार्फत चिट्ठी उसने बिहारी को भेज दी।
बिहारी आशा को प्यार करता है, इस बात को महेंद्र इस रुखाई और इस बेहयाई से जुबान पर ला सकता है - बिहारी ने यह कभी स्वप्न में भी न सोचा था। क्योंकि उसने खुद भी कभी ऐसी बात को दिल में जगह न दी थी।
लेकिन बात जब एक बार मुँह से निकल पड़ी, तो एकबारगी मार तो नहीं डाला जा सकता। उसमें सच्चाई का बीज जितना था, देखते-ही-देखते वह अँकुराने लगा।
अब उसने खुद को कसूरवार समझा। मन-ही-मन बोला - 'मेरा गुस्सा करना तो शोभा नहीं देता, महेंद्र से माफी माँग कर विदा लेनी होगी। उस रोज मैं कुछ इस तरह चला आया था, मानो महेंद्र दोषी है, मैं विचारक हूँ... अपनी यह गलती मुझे कबूल करनी पड़ेगी।'
बिहारी समझ रहा था, आशा चली गई है। एक दिन शाम को वह धीरे-धीरे जा कर महेंद्र के दरवाजे पर जा कर खड़ा हुआ। राजलक्ष्मी के दूर के रिश्ते के मामा साधुचरण पर नजर पड़ी। कहा - 'कई दिनों से इधर आ नहीं सका - सब कुशल तो है?'
साधुचरण ने कुशल कही। बिहारी ने पूछा - 'भाभी काशी कब गईं?'
साधुचरण ने कहा - 'कहाँ, गई कहाँ? उनका जाना अब न होगा।'
यह सुन कर बिहारी सब कुछ भूल कर अंदर जाने को बेचैन हो उठा। पहले वह जैसे ग्रहण भाव से खुशी-खुशी अपनों-सा परिचित सीढ़ियों से अंदर जाया करता था, सबसे हँसता-बोलता था, जी में कुछ होता न था, आज उसकी मनाही थी, दुर्लभ था वह - इसकी याद आते ही उसका मन पागल हो गया। बस एक बार, केवल अंतिम बार इसी तरह अंदर जा कर परिवार के सदस्य-सा राजलक्ष्मी से, घूँघट निकाले आशा भाभी से दो बातें मात्र कर आना उसके लिए परम आकांक्षा का विषय बन बैठा।
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