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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

24

महेंद्र ने सोचा, गलत, मैं विनोदिनी को प्यार नहीं करता। शायद प्यार न भी करता हूँ, मगर कहना कि नहीं करता हूँ यह तो और भी कठिन है। इससे चोट न पहुँचे, ऐसी स्त्री कौन है? इसके प्रतिवाद की गुंजाइश कैसे हो?

महेंद्र ने बक्स से निकाल कर उसकी तीनों चिट्ठियों को फिर से पढ़ा। वह मन-ही-मन बोला - 'इसमें कोई संदेह नहीं कि विनोदिनी मुझे प्यार करती है। मगर कल वह बिहारी के सामने इस तरह क्यों आई? शायद मुझे दिखाने के ही लिए। मैंने जब साफ जता दिया कि मैं उसे प्यार नहीं करता, तो फिर किसी मौके से मेरे सामने प्यार को ठुकराए नहीं तो और क्या करे? हो सकता है, मुझसे इस तरह ठुकराई जाने पर वह बिहारी को प्यार भी करने लगे।'

महेंद्र का क्षोभ इस तरह बढ़ चला कि अपनी उतावली से वह आप ही अचरज में पड़ गया। डर उठा। और, विनोदिनी ने सुन ही लिया तो क्या कि महेंद्र उसे प्यार नहीं करता? इसमें दोष भी क्या?

आँधी आने पर नाव की जंजीर जैसे लंगर को कस कर पकड़ती है, वैसे ही अकुलाहट में महेंद्र ने आशा को और भी कस कर पकड़ा।

रात को महेंद्र ने आशा का मुँह अपनी छाती से लगा कर पूछा - 'चुन्नी, ठीक बताओ, तुम मुझे कितना प्यार करती हो?'

आशा सोचने लगी - 'यह सवाल कैसा! बिहारी के बारे में जो शर्मनाक बात निकली है, क्या उसी से उस पर संदेह की ऐसी छाया पड़ी?'

वह शर्म से मुई-सी हो कर बोली - 'छि:, आज यह क्या पूछ रहे हो तुम! तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, साफ बताओ, मेरे प्यार में तुम्हें कब क्या कमी दिखाई दी?'

उसे सता कर उसका माधुर्य निचोड़ने की नीयत से महेंद्र बोला - 'फिर तुम काशी क्यों जाना चाहती हो?'

आशा बोली - 'मैं नहीं जाना चाहती। कहीं भी नहीं जाऊँगी मैं।'

महेंद्र - 'लेकिन चाहा तो था पहले?'

आशा बहुत दुखी हो कर बोली - 'तुम्हें पता है, मैंने क्यों चाहा था? मजे से रहने के लिए नहीं जाना चाहती थी मैं।'

महेंद्र ने कहा - 'सच कहूँ चुन्नी, और किसी से विवाह किया होता तो तुम इससे कहीं ज्यादा सुखी होती।'

सुनते ही चौंक कर आशा महेंद्र से छिटक पड़ी और तकिए में मुँह गाड़ कर काठ की मारी-सी पड़ी रही। कुछ ही क्षण में उसकी रुलाई रोके न रुकी। सांत्वना देने के लिए महेंद्र ने उसे कलेजे से लगाने की कोशिश की, पर आशा तकिए से चिपकी रही। पतिव्रता के ऐसे रूठने से महेंद्र सुख, गर्व और धिक्कार से क्षुब्ध होने लगा।

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