उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
लड़खड़ाता हुआ वह कमरे से बाहर निकल गया। बगल के कमरे से विनोदिनी झपट कर आई- 'बिहारी बाबू!'
दीवार का सहारा लिए हँसने की कोशिश करते हुए बिहारी ने कहा - 'क्या है, विनोद भाभी!'
विनोदिनी बोली- 'किरकिरी के साथ मैं भी काशी जाऊँगी।'
बिहारी ने कहा - 'नहीं-नहीं भाभी, यह न होगा। मैं आरजू करता हूँ, मेरे कहने से कुछ मत करना। मैं यहाँ का कोई नहीं होता, यहाँ की किसी भी बात में मैं दखल नहीं देना चाहता। तुम देवी हो, जो तुम्हें ठीक जँचे, वही करना! मैं चला।'
विनोदिनी को नम्रता से नमस्कार करके बिहारी जाने लगा।
विनोदिनी बोली - 'मैं देवी नहीं हूँ भाई साहब, सुनो तो सही। तुम चल दोगे, तो किसी का भला न होगा। फिर मुझे दोष मत देना!'
बिहारी चला गया। महेंद्र ठगा-सा बैठा रहा।
विनोदिनी बिजली-सी कटाक्ष करती हुई बगल के कमरे में चली गई जहाँ आशा मारे शर्म के मरी-सी जा रही थी। बिहारी उसे प्यार करता है - महेंद्र के मुँह से ऐसा सुन कर वह मुँह नहीं उठा पा रही थी। लेकिन उस समय उस पर विनोदिनी को दया न आई। आशा ने अगर निगाह उठा कर देखा होता, तो वह डर जाती। सारे संसार पर मानो खून चढ़ आया था। विनोदिनी का झूठ! बेशक विनोदिनी को कोई भी नहीं प्यार करता।
आवेश में वही जो एक बार महेंद्र के मुँह से निकल पड़ा था कि मैं नालायक हूँ, उसके बाद जब वह आवेश जाता रहा तो अपने उस अचानक उबल पड़ने की वजह से बिहारी से वह सकुचा गया था। उसे लग रहा था कि उसकी सारी बातें खुल गई हैं। वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता, फिर भी बिहारी का खयाल है, प्यार करता है। जो कुढ़न बढ़ रही थी, आज वह अचानक भभक पड़ी।
लेकिन बगल के कमरे से विनोदिनी दौड़ती आई, और उसने बिहारी को रोकने की कोशिश की और बिहारी के कहे मुताबिक वह काशी जाने को तैयार हो गई - यह सब महेंद्र की कल्पना के भी बाहर था। इस दृश्य ने महेंद्र को एक चोट पहुँचा कर अभिभूत कर दिया। उसने कहा था कि वह विनोदिनी को प्यार नहीं करता; लेकिन जो कुछ सुना, जो कुछ देखा, उसने उसे चैन न लेने दिया। चारों तरफ से उसे बेचैन बनाने लगा। और बार-बार निरे अफसोस के साथ उसके जी में होने लगा कि विनोदिनी ने मुझे यह कहते सुना कि मैं उसे प्यार नहीं करता।
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