लोगों की राय

उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984
आईएसबीएन :9781613015643

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

103 पाठक हैं

नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

22

महेंद्र घर पहुँचा। उसका चेहरा देखते ही आशा के मन का सारा संदेह कुहरे के समान एक ही क्षण में फट गया। अपनी चिट्ठियों की बात सोच कर महेंद्र के सामने मारे शर्म के वह सिर न उठा सकी। इस पर महेंद्र ने शिकवा किया- 'ऐसे आरोप लगा कर तुमने चिट्ठियाँ लिखीं कैसे!'

और उसने जाने कितनी बार पढ़ी हुई वे तीनों चिट्ठियाँ अपनी जेब से निकालीं। आशा ने गिड़गिड़ाकर कहा - 'तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, इन चिट्ठियों को फाड़ फेंको!'

महेंद्र से उन चिट्ठियों को ले लेने के लिए वह उतावली हो गई। महेंद्र ने उसे रोक कर चिट्ठियों को जेब के हवाले किया। कहा - 'मैं काम से गया और तुमने मेरा मतलब ही नहीं समझा? मुझ पर संदेह किया?'

छलछलाती आँखों से आशा बोली - 'अबकी बार मुझे माफ कर दो! आइंदा ऐसा न होगा।'

महेंद्र ने कहा - 'कभी नहीं?'

आशा बोली - 'कभी नहीं।'

महेंद्र ने उसे अपने पास खींच कर चूम लिया। आशा बोली - 'लाओ, चिट्ठियाँ दे दो, फाड़ डालूँ!'

महेंद्र बोला - 'रहने दो उन्हें।'

आशा ने विनय से यह समझा- 'मेरी सजा के रूप में इन्होंने चिट्ठियाँ रख ली हैं।'

चिट्ठियों के चलते आशा का मन विनोदिनी की तरफ से जरा ऐंठ गया। पति लौट आए, यह खबर वह विनोदिनी से कहने न गई, बल्कि उससे कतराती रही। विनोदिनी इसे ताड़ गई और काम के बहाने बिलकुल दूर ही रही।

महेंद्र ने सोचा - 'अजीब है! सोचा था, अबकी बार विनोदिनी को मजे से देख पाऊँगा- उलटा ही हुआ। फिर उन चिट्ठियों का मतलब?'

महेंद्र ने अपने मन को इसके लिए सख्त बनाया कि नारी के दिल को अब कभी समझने की कोशिश नहीं करेगा। सोच रखा था, 'विनोदिनी पास आना भी चाहेगी तो मैं दूर-दूर रहूँगा।' अभी उसके जी में आया, 'न, यह तो ठीक नहीं हो रहा है- सचमुच ही हम लोगों में कोई विकार आ गया है। खुले दिल की विनोदिनी से बातचीत, हँसी-दिल्लगी करके संदेह की इस घुटन को मिटा डालना ही ठीक है।' उसने आशा से कहा - 'लगता है, मैं ही तुम्हारी सखी की आँख की किरकिरी हो गया। उनकी तो अब झाँकी भी नहीं दिखाई पड़ती।'

उदास हो कर आशा बोली - 'जाने उसे क्या हो गया है!'

इधर राजलक्ष्मी आ कर रोनी-सी हो कर बोलीं- 'बेटी, अब तो विपिन की बहू को रोकना मुश्किल हो रहा है।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai